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तस्मार्य लोक वार्तिके
रहा
है। यह बौद्धोंको नहीं मान बैठना चाहिये, जिससे कि वह लक्ष्यलक्षणभाव व्यवहारस्वरूप संवृत्ति में ही कोरा गढ लिया गया माना जाय । अतः तुम बौद्धोंने जो बहुत पहिले आक्षेप किया था कि संवृतिसे लक्ष्यलक्षणभाव है । स्वप्नाविचारोंके समान बुद्धिमें यों ही गढ लिया गया है। यह तुम्हा मन्तव्य व्यवस्थित नही रहा । यह लक्ष्यलक्षणभाव पारमार्थिक सिद्ध हो रहा संता जीव और उपयोग का कथंचित् तादात्म्यसम्बन्ध हो जानेसे बन जाता है । जैसे कि " अग्निः उष्णः उष्णका कथंचित् तादात्म्य हो जानेसे लक्ष्यलक्षणभाव जगत्प्रसिद्ध हो रहा है ।
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कश्चिदाह—नीपयोगलक्षणो जीवस्तदात्मकत्वात् विपर्ययप्रसंगादिति, तं प्रत्याह । नातस्तत्सिद्धेः । उभयथापि त्वद्वचनासिद्धेः स्वसमयविरोधात् केनचिद्विज्ञानात्मकत्वात् तदात्मकस्य तेनैव परिणामदर्शनात् क्षीरनीरवत् । निःपरिणामे त्वतिप्रसंगार्थस्वभावसंकराविति । स चायमाक्षेपसमाधानविधिर्जीवोपयोगयोस्तादात्म्यैकांताश्रयो नयाश्रयश्च प्रतिपत्तव्यः ।
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कोई वादी पूर्वपक्ष कह रहा है कि जीवका लक्षण उपयोग नहीं हो सकता है। क्योंकि उपयोग और जीवका तदात्मकपना हो रहा है, घट घट ही से उपयुक्त नहीं हो सकता है । तथैव जीव अपने तदात्मक उपयोगसे उपयुज्यमान नहीं बन सकता है । जैनों द्वारा जीव और पुद्गलका अभेद विपर्यय हो जानेका प्रसंग हो जायगा, अर्थात् — अभेद पक्षमें उपयोगका लक्षण जीव ही क्यों न बन बैठे। जीवकी हुई उपयोग परिणति के समान उपयोगकी ही जीवस्वरूप परिणति क्यों न हो जाय, इस प्रकार कहने वाले उस वादकेि प्रति श्री विद्यानन्दस्वामी समाधानको कहते हैं कि उक्त आक्षेप ठीक नहीं है। क्योंकि इस ही से उस उपयोगको लक्षणपनेकी सिद्धि हो जाती है अर्थात् — जिस ही कारणसे तुम अभेदको कह रहे हो इसी कारणसे उपयोग सिद्ध हो जाता है । सर्वथा अभेद पक्षमें जैसे आकाशकी रूपके साथ उपयुक्तता नहीं होती है, उसी प्रकार सर्वथा भेद माननेपर जीव भी ज्ञान दर्शन उपयोगोंसे उपयुक्त नहीं हो सकेगा। देखो, घास, पानी, खल, बिनोला, दरिया, जीरा, आदि कारण दूध बननके अभिमुख हो रही दुग्ध शक्ति ही तो उत्तर क्षणमें दूधस्वरूपसे परिणम जाती है । उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञान दर्शन स्वभावशक्तियों के वशसे घटज्ञान, पटज्ञान, स्वरूप उपयोग करके परिणति कर लेता है, इस प्रकार कथंचित् भिन्न अभिन्न हो रहा उपयोग उस जीवका लक्षण बन जाता है । दूसरी बात यह है कि दोनों प्रकारोंसे भी तुम्हारे वचनकी सिद्धि नहीं हो पाती है / अर्थात् — अनेकान्त प्रक्रियाको नहीं समझ कर तुमने जो यह कहा था कि जो जिस स्वरूप है वह उसी करके परिणाम नहीं धार सकता है। इसपर तुम यह विचारो कि तुम्हारे वचन स्वपक्ष के साधक और परपक्ष के दूषक स्वरूप हैं । स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण यदि उनका स्वभाव मानो तो तुम्हारा पहिला एकान्त वचन हाथसे निकल गया और हमारा जैनसिद्धान्त पुष्ट हो गया और तद्रूप परिणति नहीं मानो तो भी तुम्हारा वचन असिद्ध हो जाता है । जो प्रतिपक्षमें दूषण नहीं दे सके वह नहीं कहा गया सारिखा है। सर्वत्र सर्वदा सबकी सत्ता साधने में क्या प्रयोजन रक्खा है ? तीसरी बात यह है कि
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