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तस्वार्थचिन्तामणिः
धानं वादिपतिवादिनोः समानमाक्षेपवदुपलक्ष्यते । ततो वस्तुसत्सामान्यं विशेषवत्तत्र च प्रवर्तमानो विकल्पो वस्तुनिर्भासं संवादकत्वादनुपप्लव एव प्रत्यक्षवत् तादृशाच विकल्पाल्लक्ष्यलक्षणभावो व्यवस्थाप्यमानो न बुध्यारूढ एव यतः सांवृतः स्यात् । पारमार्थिकश्च लक्ष्यलक्षणभावः सिद्धः सन्नयं जीवोपयोगयोः कथंचित्तादात्म्यादुपपद्यते अग्न्युष्णवत् । ..
यदि फिर बौद्धोंका यह मन्तव्य होय कि विसदृशपना कोई वस्तुका औपाधिक धर्म नहीं है, वह विसदृशपना तो वस्तुका स्वकीय निजरूप है उस वस्तुके स्वरूप माने गये वैसादृश्यमें हो रहा विसदृशपनेका ज्ञान तो वस्तुमें ही होरहा है । वस्तुके अतिरिक्त किसी वैसादृश्य नामके भिन्न धर्मको विषय करनेवाला वह ज्ञान नहीं है । क्योंकि वस्तुसे अतिरिक्त शरीरवाले उन वैसादृश्य धर्मोका अभाव है। अर्थात्-स्वलक्षण या अनिर्देश्य जो कुछ भी वस्तु है वह असाधारण, विशेष, या विसदृश परिणाम स्वरूप ही तो है। हां कल्पना करके तो भले ही उस वस्तसे भिन्न अर्थपने करके न्यारे कर लिये गये वैसादृश्यमें विसदृशपनेका धर्ममूलक ज्ञान उठालो । किन्तु वह ज्ञान उपचारसे किया गया ही है, मुख्य नहीं है जिससे कि उस वैसादृश्यमें भी विसदृशपनेका ज्ञान करानेके लिये अन्य वैसादृश्योंकी फिर उन वैसादृश्योंमें भी विलक्षणपनेका ज्ञान करानके लिये न्यारे अनेक वैसादृश्योंकी कल्पना करते रहनेसे अनवस्था दोषका प्रसंग हो जाय । " राहोः शिरः " ऐसी अपोद्धार कल्पना करनेसे राहसे शिर व्यतिरिक्त समझा जाता है, उसी प्रकार वैसादृश्य कोई वस्तुसे न्यारा धर्म नहीं है । आचार्य कहते हैं कि बौद्धोंका यह मत है तब तो हम कहेंगे कि सादृश्य भी वस्तुका स्वरूप है । उस सादृश्यमें सदृश्यपनेका ज्ञान होना वस्तु के निज डीलमें ही ज्ञान होना है। वस्तुसे व्यतिरिक्त हो रहे सादृश्यमें वह सादृश प्रत्यय नहीं है । क्योंकि वस्तुसे सादृश्य न्यारा नहीं है । भले ही अर्थान्तरपनेसे न्यारा कल्पित कर उस सदृश परिणाममें “ यह इसके सदृश है" " वह इसके समान है ” ऐसे सदृशपनेको ग्रहण करनेवाले ज्ञान उठालो, किन्तु वे ज्ञान गौण ही हैं, मुख्य नहीं हैं। " शिलापुत्रकस्य शरीरं ” केतुका · धड है, सोनेका फासा है, यह भेदका ज्ञान गौण है । जिससे कि व्यक्तिरूप न्यारे सादृश्योंमें भी अन्य सादृश्योंकी कल्पना करते रहनेसे हम जैनोंके ऊपर अनवस्था दोषका प्रसंग होता, इस प्रकार वादी जैन और प्रतिवादी बौद्ध दोनोंका समाधान करना समान दीखता है । जैसे कि पहिले दोनों ओरसे किये गये आक्षेप समान देखे जा चुके हैं हम तो बहुत पहिलेसे ही वस्तुको सामान्य विशेष आत्मक कहते चले आ रहे हैं । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि विशेषके समान सादृश्य या समान्य भी वस्तुभूत होता हुआ सद्रूप है । उस वस्तुभूत सामान्यमें प्रवर्त्त रहा विकल्पज्ञान ( पक्ष ) वस्तुका ही यथार्थ प्रतिभास करनेवाला है ( साध्य ) बाधारहितपन या सकलप्रवृत्तिजनकत्वरूप सम्बाद करानेवाला होनेसे ( हेतु ) प्रत्यक्षके समान ( दृष्टान्त ) । च्युत नहीं होता हुआ परमार्थभूत वस्तुका ग्राहक है और तैसे वस्तुमाही विकल्पज्ञानसे लक्ष्यलक्षणभाव व्यवस्थापित किया जाता है । वह वस्तुको स्पर्श नहीं कर केवल कल्पना बुद्धियोंमें ही आरूढ हो