________________
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
सदृशपरिणामका अपलाप किया जायगा तो विसदृश परिणाम भी जगत्से उठ जायगा । जहां राग नहीं वहां द्वेष भी नहीं है ।
७६
अत एव सदृशेतरपरिणामविकलमखिलं स्वलक्षणमनिर्देश्यं सर्वथेति चेत् कथमेवमसादृश्यं न स्यात् । न हि किंचित्तथा पश्यामो यथाङ्गीक्रियते परैः सदृशेतरपरिणामात्मनोन्तर्बहिर्वा वस्तुनोनुभवात् ।
चना
बौद्ध कहते हैं कि इस ही कारणसे अर्थात्-सादृश्य, वैसादृश्य कल्पनाका झंझट अवास्तविक है, ऐसा होनेसे ही हम बौद्ध सम्पूर्ण वस्तुभूत स्वलक्षणों को सदृश परिणाम और विसदृश परिणामसे सर्वथा रीते हो रहे अवक्तव्य स्वीकार करते हैं । भावार्थ- स्वलक्षण तत्त्व सम्पूर्ण धर्मोसे रहित हो रहा किसी भी शब्द से नहीं कहा जाता है, निर्विकल्प वस्तुमें सभी प्रकारोंसे शब्द योजना नहीं होती है । स्वलक्षणमें विसदृश परिणाम है सदृश परिणाम नहीं है, ये भी सब असत्य कल्पनायें हैं । बहुत बढिया पदार्थ की प्रशंसा नहीं हुआ करती है । चुप रहकर उसके गुणोंका मनन करना ही उसकी तहपर पहुँहै । मध्यम श्रेणीके सौन्दर्य, विद्वत्ता, तपस्या, बल, आदिकी प्रशंसाके चाहे जितने बड़े पुल बांध लो ठलुआ बैठेको कौन रोके । अतः परमार्थभूत स्वलक्षण तो सादृश्य वैसादृश्यसे रहित होता हुआ परिशेषमें स्वलक्षण शद्वसे भी अवक्तव्य हो जाता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि यों कहने पर तो भला सदृशपना या विसदृशपना कैसे नहीं हो जायगा ? स्वलक्षण पदार्थ ब्रह्माद्वैतुके समान एक तो है नहीं, अनेक ही हैं । स्वलक्षणपने करके या अनिर्देश्यपने करके अथवा सादृश्य वैसादृश्यसे रहितपने करके तो उन स्वलक्षणों में सदृशता मानी ही जायगी तथा अनेकोंमें विसदृशपना तो विना परिश्रम ही सध जाता है । तभी अनेकपनकी रक्षा हो सकती है । बात यह है कि जिस प्रकार दूसरे विद्वान् बौद्धों करके वस्तुका स्वरूप अवक्तव्य या सदृशविसदृश परिणामरहितपना अपना स्वलक्षण अंगीकार किया जाता है, उस प्रकार किसी भी स्वलक्षणको हम नहीं देख रहे हैं । यथार्थमें सदृश और त्रिसदृश परिणाम आत्मक हो रही ही अन्तरंग अथवा बहिरंग वस्तुका अनुभव हो रहा है। ज्ञान, सुख, इच्छा, दुःख, वेदना, चित्तवृत्ति, ब्रह्मचर्य, क्रोध, शक्ति, प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि अन्तरंग और घट, पट, पुस्तक, गृह, रुपया, पैसा, आदि बहिरंग पदार्थोंमें सदृश परिणाम और विसदृश परिणतियां हो रहीं सबके अनुभवमें आती हैं ।
1
यदि पुनर्वैसादृश्यं वस्तुस्वरूपं तत्र विसदृशप्रत्ययो वस्तुन्येव न े वस्तुव्यतिरिक्ते वैसदृश्ये तस्याभावात् कल्पनया तु ततोपोद्धृतेरर्थान्तरतया वैसादृश्ये विसदृशप्रत्यय औपचारिक एव न मुख्यो यतो वैसादृश्यांतरकल्पनप्रसंग इति मतं, तदा सादृश्यमपि वस्तुस्वरूपं तत्र सदृशप्रत्ययो वस्तुन्येव न वस्तुव्यतिरिक्ते सादृश्ये तस्याऽभावादर्थान्तरतयापोद्धृते परिणामे सदृशप्रत्ययो भाक्त एव न मुख्यो यतः सादृश्यांतरकल्पनादनवस्थाप्रसक्तिरिति समा