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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि यों तो विसदृश परिणामको भी अवस्तुपनेका प्रसंग होगा। वैसादृश्य भी तो दूसरोंकी अपेक्षासे व्यवहृत हो रहा आपेक्षिक है । पुद्गल के रूप, रस, या जीवके ज्ञान, सुखके तुल्य अपरिवर्तनीय नहीं है । दूसरी बात यह है कि यह व्याप्ति किसने बना दी है ? कि जो आपेक्षिक है वह अवस्तु है । देखो, नील नीलतर, मधुर मधुरतर, उच्चाचार, नीचाचार, अल्पदुःख महादुःख, ये आपेक्षिक पदार्थ भी वस्तुभूत हैं | अतः द्वितीय आदिककी अपेक्षा रखते हुये भी दोनों सादृश्य, वैसादृश्य, परमार्थ हैं। प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासमानो विसदृशपरिणामो नापेक्षिक इति चेत्, सदृशपरिणामोपि तत्र प्रतिभासमानः परापेक्षिको माभूत् । सदृशपरिणामः प्रत्यक्षे प्रतिभातीति कुतो व्यवस्थाप्यते इति चेत्, विसदृशपरिणामस्तत्र प्रतिभातीति कुतः ? प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विसदृशविकल्पादिति चेत् तथाविधात्सदृशविकल्पात्सादृश्यप्रतिभासव्यवस्थास्तु कथमन्यथा यत्रैव जन्येदेनां तत्रैवास्य प्रमाणतेति घटते । बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्षबुद्धिमें स्पष्ट प्रतिभास रहा विसदृश परिणाम तो अन्योंकी अपेक्षासे दुआ नहीं है । अविचारक प्रत्यक्ष द्वारा जान लिया गया जो पदार्थ होगा वह वस्तुभूत होगा। नीलनीलतर या मधुरमधुरतरका प्रकरण होनेपर प्रत्यक्षज्ञान उसको मीठा या अधिक नीला जान रहा है इससे यह अधिक मीठा है, उससे यह न्यून मीठा है। यह पीछे होनेवाली कल्पनायें हैं, किन्तु यह इससे विसदृश है इस बातको प्रत्यक्षज्ञान निरपेक्ष होकर विशदरूपसे जान रहा है। यों कहनेपर तो आचार्य महाराज कहते हैं कि उसी प्रकार उस प्रत्यक्ष बुद्धिमें स्पष्ट प्रतिभास रहा सदृशपरिणाम भी परकी अपेक्षा रखनेवाला नहीं होवे । स्थाणु और पुरुषमें ठहरनेवाली ऊर्ध्वता जैसे प्रत्यक्षसे ही दीख जाती है उसी प्रकार मनुष्यपन, पशुपन, द्रव्यपन, आदिके सदृश परिणाम भी वस्तुके दीख जानेपर ही प्रत्यक्ष द्वारा उसी समय जान लिये जाते हैं । वस्तुके किसी धर्ममें यदि अन्यकी भी अपेक्षा रही आवे तो भी उसका वस्तुभूतपना छींड लिया नहीं जाता है । अग्निकी अपेक्षासे हुआ घटका लाल रंग या पक्कापन उस घटकी वस्तुभूत सम्पत्ति है । परापेक्ष हो जानेसे क्या कोई मर जाता है, तिसपर भी सदृश परिणाम परापेक्ष तो नहीं है अतः परमार्थभूत है । बौद्ध कहते हैं कि अभी जैनोंने यह कहा है कि प्रत्यक्षज्ञानमें सदृशपरिणाम प्रतिभास जाता है, हम पूंछते हैं कि इस प्रकार किस प्रमाणसे व्यवस्था कराई जाती है ? अर्थात्-परमाथग्राही प्रत्यक्षमें सहशपरिणाम देखा जा चुका है यह कैसे निर्णीत किया जाय ? कलको कोई यों भी कह देगा कि घोडेके सिरपर सींग भी प्रत्यक्ष द्वारा दीख रहे हैं । बौद्धोंके यों कहनेपर तो आचार्य सकटाक्ष प्रश्न करते हैं कि तुम बौद्धोंके कथन अनुसार उस प्रत्यक्ष ज्ञानमें विसदृश परिणाम प्रतिभास रहा है यह कैसे जाना जाय ? बताओ। इसपर बौद्ध यदि यों उत्तर कहैं कि प्रत्यक्षके पीछे होनेवाले और उतने ही प्रत्यक्षगृहीत अंशका निर्णय करनेवाले वसदृशमाही विकल्पज्ञानसे यह निर्णय कर लिया जाता है कि पूर्ववर्ती निर्विकल्पक
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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