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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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प्रत्यक्षने सदृशपरिणामको अवश्य विषय किया है । तमी तो उसके पश्चाभावी विकल्पने विसदृश परिणामका अध्यवसाय किया है। ग्रामीण परिभाषा है कि “ जो गेंहू खायगा वह गेंहू हंगेगा, " " बोवे बीज बमूरके आम कहांसे होय ? " यों करनेपर तो आचार्य भी कहते हैं कि तिस ही प्रकार अविचारक प्रत्यक्षके पीछे होनेवाले विचारक सदृशग्राही विकल्पनास्वरूप श्रुतज्ञानसे सादृश्यके प्रतिभासकी व्यवस्था बन जाओ । अर्थात्-मीठे, अधिक मीठेका विचार कर रहे पीछे होनेवाले श्रुतज्ञानोंसे जैसे यह जान लिया जाता है कि मीठेपनको जाननेवाला पूर्वमें प्रत्यक्ष ज्ञान हो चुका है, उसी प्रकार सदृश परिणामोंकी भी पीछे अनेक कल्पनायें उठती हैं । अतः उनके मूल कारण सदृश परिणामको प्रत्यक्ष ज्ञानने अवश्य जान लिया है, यह प्रतीत हो जाता है। अन्यथा यानी प्रत्यक्ष द्वारा गृहीत नहीं किये गये विषयमें यदि कल्पनायें उठा ली जावेंगी तो तुम बौद्धोंका यह सिद्धान्त वचन किस प्रकार घटित हो सकेगा कि निर्विकल्पक बुद्धि जिस ही प्रत्यक्ष गृहीत विषयमें इस सविकल्पक बुद्धिको उत्पन्न करायेगी उस ही अंशमें इस निर्विकल्पक ज्ञानको प्रमाणपना व्यवस्थित होता है । भावार्थ-इस तुम्हारे सिद्धान्त वचन से पुष्ट होता है कि प्रत्यक्ष द्वारा विसदृश परिणामके समान सदृश परिणाम भी गृहीत हो चुका है। तभी तो तदनुसार दोनोंको विषय कर रहे पीछे विकल्पज्ञान उपजते हैं।
नन्ववमध्यक्षसंविदि प्रतिभासमानः सदृशपरिणामो विशेष एव स्यात् स्पष्टप्रतिभासविषयस्य विशेषत्वादिति चेत् तर्हि प्रत्यक्ष प्रतिभासमानो विशेषः सदृशपरिणाम एव स्यात् स्पष्टावभासगोचरस्य सदृशपरिणामत्वादित्यपिछवाणः कुतो निषिध्यते ? प्रतीतिविरोधादिति चेत्, तत एव सामान्यस्य विशेषतामापादयनिषिध्यतां ।
बौद्ध अपने पक्षका अवधारण करते हुये झुंझला कर कहते हैं कि इस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञानमें प्रतिभास रहा सदृशपरिणाम तो विशेष ही बन बैठेगा। क्योंकि स्पष्ट हो रहे ज्ञानके विषयको विशेषपना निर्णीत हो रहा है । अर्थात्-प्रत्यक्षप्रमाणका विषय विशेष पदार्थ ही है। जो कुछ भी छुआ, चाटा, सूंघा, देखा, सुना, जाता है या मन इन्द्रिय द्वारा संवेदा जाता है, वह विशेषरूप ही पदार्थ है । सादृश्य या सामान्यको छूआ, सूंघा, या देखा नहीं जा सकता है । अतः सदृशपरिणाम भी विशेष पदार्थ बन बैठा। बौद्धोंके यों कहनेपर तब तो हम यों कहेंगे कि प्रत्यक्षमें प्रतिभास रहा विशेष तो सदृशपरिणाम ही हो जावेगा । क्योंकि स्पष्ट प्रतिभासको विषय हो रहे पदार्थको सदृशपरिणामपना है । सदृशपरिणामसे आक्रान्त हो रहे ही पदार्थका छूना, देखना, सुनना, होता है। सभी प्रकारोंसे दूसरोंके सादृश्यको नहीं पकड रहे खरविषाणके समान पदार्थका अद्यावधि सर्वज्ञको भी प्रत्यक्ष नहीं हो सका है । तिर्यक् सामान्य सभी पदार्थोंमें ओत पोत भरा हुआ है। सजातीयता वस्तुकी गांठकी सम्पत्ति है । इस प्रकार भी कह रहा स्याद्वादी भला किस झक्कडसे रोका जा सकता है ? बात यह है कि पदार्थोंको सर्वथा अनित्य ही कहनेवाले बौद्धोंके प्रति हमारा नित्यत्वको सिद्ध करनेवाला अव्यर्थ