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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विजातीय अर्थको करते हुये सर्वथा विजातीय अर्थकी उत्पत्तिको रोक रहे हैं, उसी प्रकार वृक्ष सामान्यका भी उस क्रियाको करनेमें व्यापार हो रहा है । अर्थात् गोसामान्य भी गायको मरण1 पर्यंत गायपना रक्षित रखता हुआ घोडा, हाथी, आदि बनने से रोकता रहता है । सामान्यमनुष्य कालान्तरमें अभ्यास करते हुये नामधारी हो जाते हैं । वस्तुके आत्मभूत हो रहे सामान्यको विसदृश अर्थ सम्पादनका अनुपयोगी मत समझो । ऊपरसे साधारण या उदासीन दीख रहे ! कारण समय पर बडे बडे कामों को साधते हैं ।
एकत्र पादपव्यक्तौ सदृशपरिणामः कथं तस्य द्विष्ठत्वादिति चेत्, किं पुनर्विसदृशपरिणामो न द्विष्ठः । द्वितीयाद्यपेक्षमात्रादेकत्रैव विसदृशपरिणाम इति चेत्, किं पुनर्न सदृशपरिणामोपि । तस्यैवमापेक्षिकत्वादवस्तुत्वमिति चेत् न, विसदृशपरिणामस्याप्यवस्तुत्वप्रसंगात् ।
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आप जैनियोंने कहा था कि समान, असमान, परिणामस्वरूप बालवृक्षसे सदृश और विसदृश परिणाम आत्मक ही तरुणवृक्ष उपजता है । इसपर हम बौद्धों का प्रश्न है कि एक ही वृक्षव्यक्ति में भला सदृश परिणाम कैसे ठहर सकता है ? वह सादृश्यः तो दो आदिमें पाया जाता है । अन्यथा अनन्वय अलंकार या दोष लग बैठेगा, जो कि कवियोंके अतिरिक्त दार्शनिकोंके यहां अभीष्ट नहीं किया गया है । तद्भिन्नमें तद्गत अनेक सदृश धर्मो के पाये जानेसे सादृश्य आरोपा जाता है । एक ही व्यक्तिमें रहनेवाले सादृश्यका तो एक किनारेवाली नदीके समान असम्भव है, इस प्रकार बौद्धों के कहनेपर हम जैन भी बौद्धों से पूंछते है कि तुम्हारा माना गया विसदृश, परिणाम क्या दो में ठहरनेवाला नहीं है ? फिर वह विशेष भला एक व्यक्ति में कैसे ठहर गया ? बताओ । सादृश्य जैसे दो आदिमें रहता है उसी प्रकार वैसादृश्य भी दो आदिमें ही पाया जाता 1 अकेलेमें विसमानता नहीं है । गाय से विलक्षण भैसा है । एक परमाणु दूसरे परमाणु से विलक्षण है मनुष्य मनुष्य में या बुद्धि बुद्धिमें भेद पडा हुआ है । " मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना " । बात यह है कि पदार्थ या पदार्थोंमें ठहरनेकी अपेक्षा सदृशपरिणाम और विसदृश परिणाम समान है । यदि बौद्ध यों. कहें कि द्वितीय, तृतीय, आदिकी तो केवल अपेक्षा ही है वस्तुतः विसदृश परिणाम एक ही व्यक्तिमें ठहर जाता है, जैसे कि वैशेषिकों को यहां दूसरे तीसरे पदार्थकी केवल अपेक्षा कर द्वित्व, त्रित्व, आदि संख्यायें समवायसम्बन्धसे एक ही व्यक्तिमें ठहरतीं मानी गयी हैं । इस पर आचार्य कहते हैं कि यों तो फिर सदृशपरिणाम भी क्यों नहीं द्वितीय आदिकी अपेक्षा रखने मात्र से केवल एक ही ठहर रहा मान लिया जाय । यदि बौद्ध यों कहें कि इस प्रकार द्वितीय आदि व्यक्तियोंकी अपेक्षाको धारनेवाला होने से उस सदृश परिणामको अवस्तुपना हो जायगा । क्योंकि दूरवर्तीपन, निकटवर्तीपन, उरलीपार, परलीपार, आदिक पदार्थोंके समान आपेक्षिक पदार्थ अवस्तु होते हैं । वस्तुभूत पदार्थोंमें तो परिवर्तन नहीं होता है । किन्तु अपेक्षासे हो रहे उरलीपार परली पार आदि धर्म तो इधर उधरके मनुष्यों की अपेक्षा झट बदल जाते हैं । अत: आपेक्षिक धर्मो को हम वस्तुभूत नहीं मानते हैं । आचार्य
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