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________________ ६८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके विशेष पदार्थ के समान सामान्य पदार्थकी भी विद्यमान है । जो भोला मनुष्य परीक्षक नहीं है वह सभी प्रकारके घोडोंको सामान्य रूपसे घोडा समझ रहा है । आम्रफल, चावल, मनुष्य, रत्न, पत्थर, सबको एकसा समझ बैठता है, अथवा सभी पदार्थोके ज्ञानमें विशेषके साथ उसी समय सामान्यका ज्ञान हो रहा देखा जाता है, विशेष घोडेके गुणोंको समझ रहा पुरुष भी उस घोडेको जीव या पशु तो समझ ही रहा है । घोडाको हाथी या जड समझ रहा पुरुष परीक्षक तो क्या अनुन्मत्त कहलानेके योग्य भी नहीं है । यथार्थ बात यह है कि वस्तुके सामान्य और विशेष दोनों अंश वास्तविक होते हुये अपना ज्ञान कराते रहते हैं। सजातीयार्थकरणमर्थक्रियेति चेत् , सापि सदृशपरिणामस्यास्ति विसदृशपरिणामस्येव सदृशेतरपरिणामात्मकाद्धि बालपादपात् सदृशेतरपरिणामात्मक एव तरुणपादपः प्रादुर्भावमुपलभ्यते । तत्र यथा विसदृशपरिणामाद्विशेषाद्वा विसदृशपरिणामस्तथा सदृशपरिणामात्सामान्यात् सदृशपरिणाम इति सजातीयार्थकरणमर्थक्रिया सिद्धा सामान्यस्य । एतेन विजातीयार्थकरणमर्थक्रिया सामान्यस्य प्रतिपादिता पादपविशेषस्येव पादपसामान्यस्यापि तव्यापारात् । ___ बौद्ध कहते हैं कि उत्तरोत्तर क्षणोंमें अपने समान जातिवाले अर्थको कर देना ही वस्तुभूत अर्थकी अर्थक्रिया है। घट, पट, गाय, घोडा, आदि अपनी जातिवाले उत्तर क्षणोंको उत्पन्न करते रहते हैं, तभी तो उत्तरोत्तर क्षण दूसरे विजातीय पदार्थोसे विलक्षण परिणामवाले बने रहते हैं । यों बौद्धोंके कहनेपर हम जैन कहते हैं कि वह सजातीय अर्थका सम्पादन करनारूप अर्थक्रिया तो सदृश परिणाम रूप सामान्य अर्थके भी वर्त्त रही है, जैसे कि विसदृश परिणामरूप विशेषके वह अर्थक्रिया हो रही है । विचार कर देखा जाय तो विसदृश परिणामसे सजातीय अर्थका करना रूप अर्थ क्रिया वैसी नहीं होती है जैसी कि सदृशपरिणामसे होती है। अर्थक्रियामें सजातीयता लाना सदृश परिणामक' ही कार्य है । विशेष तो विजातीय या विलक्षण अर्थोको करनेका बीज है । सजातीय अर्थ कहते हुये विशेषैकांतवादी बौद्धोंको इस अवसरपर बहुत झेंपना पडा है । गम्भीर विद्वत्ताको धारनेवाले आचार्य कहते हैं कि सदृश और उससे न्यारे विसदृश परिणामस्वरूप हो रहे ही बाल वृक्षसे सदृश, विसदृश परिणाम स्वरूप हो रहे तरुणवृक्षकी उत्पत्ति हो रही देखी जा रही है । आमका पौदा बढते बढते ऊंट नहीं हो जाता है, वृक्षत्व जातिका सदृश परिणाम उत्तरोत्तर पर्यायोंमें सदा उपजता रहेगा, वहां वृक्षमें जिस प्रकार विसदृश परिणामरूप विशेषसे भिन्न भिन्न जातिका विलक्षण परिणाम होता रहता है, उसी प्रकार पूर्ववर्ती सर्देशपरिणामरूप सामान्यसे उत्तर क्षणमें सदृशपरिणाम उपजता रहता है । व्यक्तिमुद्रासे विशेष परिणामके समान सामान्य परिणाम भी पूर्व पूर्वपर्यायोंको नाशकर उत्तरोत्तर पर्यायोंको धारता रहता है इस कारण सजातीय अर्थको करना यह अर्थक्रिया तो सामान्यके भी हो रही सिद्ध हो चुकी है। इस उक्त कथनकरके कुछ कुछ विजातीय अर्थको कर देना या सर्वथा विजातीय अर्थका सम्पादन नहीं होने देना यह अर्थक्रिया भी सामान्य के हो रही कही जा चुकी है। जैसे कि वृक्षविशेष कुछ
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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