SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः " I योग्य अर्थक्रियाओंको सम्पादन कराते हैं, उस ही प्रकार हमारे यहां वृक्ष, ग्राम, आदि सामान्यरूप भी पदार्थ अपनी योग्य अर्थक्रियाको बनाते रहते हैं । अर्थात् - सभी स्थलोंपर बढिया विद्वान नहीं पाये जाते हैं । किन्तु अनेक धनपति या मण्डलियां छोटे छोटे पण्डितोंसे ही अपने अपने रिक्त स्थानकी पूर्ति कर लेते हैं । सूक्ष्म गवेषण करनेपर यदि यों कहो कि विशेष विद्वान् द्वारा होनेवाले कार्यको सामान्य विद्वान् नहीं कर सकता है तो हमें भी साथमें कहना पडता है कि " पीर बर्ची भिश्ती खर की नीति अनुसार सामान्य विद्वान्के द्वारा सम्हाल लिये गये कार्योंको विशेष विद्वान् भी नहीं सम्हाल सकता है । नौकरानीके कार्यको रानी नहीं कर सकती है। यदि बौद्ध यों कहें कि ज्ञाता पुरुषको परितोष करानेवाला पदार्थ तो स्पष्टरूप विशेष ही है । सामान्य गाय, घोडे, दूध देने में या असवारी करनेमें उपयोगी नहीं हैं । अतः अच्छा संतोष करा देना ही वस्तुभूत पदार्थ की अर्थक्रिया है जो कि स्पष्ट विशेषसे ही साध्य है, तब तो हम जैन कहेंगे कि वह प्रतिपत्ताको पूर्ण सन्तोषित कर देना रूप अर्थक्रिया तो अस्पष्ट हो रहे सामान्य अर्थ की भी विद्यमान है 1 भावार्थ- किसी किसी अल्पसन्तोषीको उतने सामान्यमात्र से ही परितोष होना देखा जाता है । जो अल्पआरम्भ परिग्रहको धारते हैं वे उदर पूर्ति के लिये रूखा सूखा सामान्य भोजन पाकर या मोटा, थोथा, कैसा भी वस्त्र पाकर भरण, आच्छादन, कर प्रसन्न बने रहते हैं । कैसा भी काला, गोरा, मोटा, पतला, मूर्ख, पण्डित, लडका हो माताको वही सामान्य पुत्र प्रसन्नताका हेतु है । गृहकी या अजीवि - काकी क्लेश करनेवाली पराधीनताको भुगत रहे पुरुषके लिये जो कुछ भी छोटासा अपना गृह या स्वतंत्रवृत्तिका साधन प्राप्त हो जाता है वही परितोष उत्पादक है । बात यह है कि अधिक परिचय हो जाने से विशेष पदार्थ ही सामान्य हो जाता है । दुर्लभ अवस्थाओं में सामान्य पदार्थ ही विशेष बन जाता है । रूपको निरखनेवाली कामुक पुरुषोंकी मण्डलीमें अन्य गुण, अवगुणोंकी अपेक्षा नहीं कर जिस सौन्दर्यपर विशेष दृष्टि रखी जाती है, सद्गृहस्थ के यहां उसी सौन्दर्य या असुन्दरता पर विशेष लक्ष्य रखते हुये उस व्यक्तिके गुण अवगुणों, की ओर विशेष लक्ष्य रखा जाता है । विद्वानोंके लिये जो सामान्य बातें हैं वही स्थूल बुद्धिवाले समाजके लिये विशेष हो जाती हैं । कदाचित् बहुत से विशेष पदार्थोंका मिल जाना उल्टा टंटा, बखेडा, खडा कर देता है. 1 कहीं कहीं तो विशेषकी अपेक्षा सामान्यसे अधिक सन्तोष होता है । जो वृद्ध पुरुष घोडेपर चढना नहीं जानता है उसके लिये साधारण टट्टू, सन्तोषकारक है । नटखटा, बढिया, घोडा तो उस वृद्धको हिला देगा। दुकानदार को सीधासाधा साधारण ग्राहक लाभ देकर जैसा सन्तोष उत्पन्न कर देता है। बैसा चंचल ( चलता पुरजा ) ग्राहक लाभदायक नहीं है । " घर घर चूल मटियारी है " यह परि भाषा सामान्यवादको पुष्ट कर रही है । तभी तो जैनोंने वास्तविक अर्थ को सामान्य, विशेष, आत्मक स्वीकार किया है। अब बौद्ध यदि यों कहैं कि अपने विषयमें ज्ञानको उत्पन्न करा देना ही वस्तुभूत अर्थ की अर्थक्रिया है, आचार्य कहते हैं कि अपने विषयमें ज्ञानको पैदा करा देना वह अर्थक्रिया तो ६७
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy