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तत्वार्थश्लोकवार्त
प्रतिभासना नहीं होनेसे वह अनर्थ समझा जाता है । अर्थको तो स्पष्ट रूपसे प्रकाशना चाहिये था ।
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बौद्धों यों कहने पर तो हम ( जैन ) भी कटाक्ष करते हैं कि इस प्रकार तुम्हारा माना हुआ स्पष्ट अर्थ भी अनर्थ होजाओ । क्योंकि उसका भी फिर दूर हो जानेपर स्पष्टरूपसे प्रतिभास नहीं होता है । देखो, जिस प्रकार आप बौद्ध अस्पटको अनर्थपना सिद्ध करनेके लिए यों कुतर्क देखेंगे कि जिस ही प्रकार दूर से देखनेपर वृक्ष, ग्राम, आदिके समान्य धर्म अस्पष्टपने करके जाने जा चुके हैं, किन्तु फिर चलते चलते निकट देशमें वर्त्ती जाना होनेपर वही सामान्य अस्पष्ट नहीं दीखता है । क्योंकि निकट चले जाने पर तो उस समय उन वृक्ष, ग्राम, आदिके विशेष धर्मोका स्पष्ट प्रतिभास होने लग जाता है | अतः अस्पष्ट अर्थ कोई वास्तविक नहीं है । यदि अस्पष्ट अर्थ कोई वास्तविक होता तो समीप जानेपर विशेषों के समान और भी बढिया ढंगसे अस्पष्ट दीखने लग जाता । किन्तु इसके विपरीत निकट देश हो जानेपर उस अस्पष्ट अर्थका खोज ही मिट जाता है । अतः अस्पष्ट अर्थ कोई वास्तविक नहीं है। आचार्य ही कह रहे हैं कि जैसे बौद्ध यह कटाक्ष करते हैं, उस ही प्रकार हम जैन भी कह देंगे कि देखिये निकटवर्ती हो रहे पुरुषको वृक्ष, हवेली, सुवर्ण, आदिका त्रिशेषोंसे घिरा हुआ स्वरूप तो स्पष्टपने करके प्रतिभास चुका है । पुनः ज्ञाता या ज्ञेयके अधिक दूर देशमें वर्त्त जानेपर फिर वही स्पष्टरूप नहीं प्रतिभासता है । एतावता स्पष्ट अर्थ भी अनर्थ बन बैठेगा । कारण वही है कि स्पष्ट अर्थ यदि वास्तविक होता तो दूर देशत हो जानेपर भी स्पष्ट ही दीखता रहता, जैसे कि चन्द्रमा चन्द्रस्वरूप करके ही दीखता रहता है । देशकी परावृत्ति हो जानेसे अर्थ अपने स्वरूपको नहीं परावृत कर सकता ( बदल सकता ) है। मूंसल यदि स्वर्ग में चला जाय तो वहां भी कूटेगा ही, घण्टा, घडियालों, पर स्वर्गमें भी मौंगरोंकी चोटें पडती हैं । बात यह है कि घोडा दूरसे या पाससे देखने पर हाथी या ऊंट नहीं हो जाता है । तभी तो जैनोंने स्पष्टता या अस्पष्टताको अर्थ धर्म नहीं मानकर ज्ञानका धर्म इष्ट किया है ।
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यदि पुनः सन्निहितज्ञानग्राह्यमेव तद्रूपं विशिष्टमिति मतिः तदा दविष्टादिज्ञानग्राह्यमेव तद्रूपं सामान्यमिति किं न मतं । यथा विशिष्टं पादपादिरूपं स्वामर्थक्रियां निवर्तयति तथा पादपादिसामान्यरूपमपि । प्रतिपचुः परितोषकरणं हि यद्यर्थक्रिया तदा तत्सामान्यस्यापि सास्त्येव कस्यचित्तावता परितोषात् । अथ स्वविषयज्ञानजनकत्वं तदपि सामान्यस्यास्ति ।
यदि स्पष्टको ही वास्तविक अर्थ कहनेवाले बौद्ध फिर यों कहें कि अधिक निकट अवस्था में ज्ञानके द्वारा ग्रहण करने योग्य वह स्पष्ट रूप ही तो विशेषाक्रान्त हो रहा यथार्थ है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों की बुद्धि होगी तब तो जैनोंका भी यह मत क्यों नहीं मान लिया 'जाय कि दूरवर्ती दशा या विशेषके अप्रत्यक्षकी अवस्था अथवा असाधारण धर्मोका अदर्शन आदि अबस्थाओंमें हुये ज्ञान द्वारा ग्रहण किया जा रहा ही वह अस्पष्टरूप सामान्य पदार्थ वस्तुभूत है । - जिस प्रकार कि तुम बौद्धों के यहां विशेषाक्रान्त हो रहे वृक्ष, जल, आदिके विशेषरूप अपनी अपनी