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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६५ जलको जानकर बालू रेत हाथमें आवे या चांदीको जानकर सीपकी अर्थ क्रियायें होने लगे तो वह प्रत्यक्ष असत्य है । बौद्धों के यों कहने पर तो हम जैन भी उनके चोद्यका उत्तर यों दे सकते हैं कि जिस विकल्प ज्ञानसे अर्थकी परिच्छित्ति कर प्रवृत्ति कर रहा ज्ञाता यदि अर्थ क्रिया करनेमें विसंवाद ( धोका) को प्राप्त नहीं होता है वह विकल्प सत्य है । शेष विसंवाद करानेवाले विकल्पज्ञान असत्य हैं, इस हमारी बात को भी क्यों नहीं मान लेते हो ? अर्थात्-अपने हाथके पामरेको बडा भारी श्रमोत्पादक कहना और दूसरे के हाथ में थम रहे पामरेको बीजना के समान हलका समझना अनुचित है । अतः विकल्पज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानके ऊपर किये गये आक्षेप और समाधान दोनों वादी, प्रतिवादियों के यहां तुल्य हैं । किं पुनर्विकल्पस्यार्थपरिच्छेदकत्वं ? प्रत्यक्षस्य किं ? अविचलितस्पष्टार्थावभासित्वमिति चेत्, कस्यचिद्विकल्पस्यापि तदेव, कस्यचित्तु बाधकविधुरास्पष्टार्थावभासित्वमपीति मन्यामहे । अस्पष्टोर्थ एव न भवतीति चेत् कुतस्तस्यानर्थत्वं ? पुनरस्पष्टतयानवभासनादिति चेत्, स्पष्टोप्येवमनर्थः स्यात् पुनः स्पष्टतयानवभासनात् । यथैव हि दूरात्पादपादिसामान्यमस्पष्टतया प्रतिभातं पुनर्निकटदेशवर्तितायां तदेवास्पष्टं न प्रतिभाति तद्विशेषस्य तदा प्रतिभासनात् । तथैव हि सन्निहितस्य पादपादिविशिष्टं रूपं स्पष्टतया प्रतिभातं पुनर्दूरतरदेशवर्तितायां न तदेव स्पष्टं प्रतिभासते । बौद्ध पूंछते हैं कि आप जैन यह बताओ कि तुम्हारे यहां माने गये प्रमाण आत्मक विकल्प - ज्ञानका अर्थ परिच्छेदकपना क्या है ? इस प्रकार बौद्धों के आक्षेप करनेपर हम जैन भी बौद्धों से पूंछ हैं कि तुम्हारे यहां भी प्रमाण माने गये प्रत्यक्षज्ञानकी अर्थ परिच्छेदकता भला फिर क्या मानी गयी है ? इसका उत्तर यदि बौद्ध यों कहें कि चलायमान न होकर अर्थका स्पष्टरूपसे प्रकाशकपना ही प्रत्यक्षज्ञानकी अर्थपरिच्छेदकता है, यों कहनेपर तो हम जैन भी वहीं उत्तर कहेंगे कि किसी किसी साकार प्रत्यक्ष आत्मक विकल्पका भी वह चलनरहित स्पष्ट अर्थका प्रकाशकपना ही अर्थपरिच्छेदकता मान ली जाओ। हां, किसी किसी अनुमान, तर्कज्ञान, आगम, रूप विकल्प ज्ञानोंको तो बाधा रहित होकर अस्पष्ट अर्थका प्रकाशकपना भी उनकी अर्थपरिच्छित्ति मानी गयी है । स्पष्ट, अस्पष्ट, दोनें प्रकारके विकल्प ज्ञानोंको निर्बाध होकर अर्थप्रकाशकपन है । ऐसा हम जैन स्वीकार कर मान रहे हैं, यदि अकेले प्रत्यक्ष द्वारा ही वस्तुभूत स्पष्ट अर्थका विषय होना माननेवाले बौद्ध यों कहें कि जगत् में अस्पष्ट अर्थ तो कोई ही नहीं है। जगत्में जो कुछ है वह स्पष्ट हो रहा प्रत्यक्षज्ञान से ही विषय कर लिया जाता है। अस्पष्ट सामान्यको जाननेवाले अनुमानका या आगम आदि ज्ञानोंका विषय वस्तुभूत ही नहीं है । अपरमार्थ हैं, यो बौद्धाके कहने पर जैन कहते हैं कि तुमने उस अस्पष्टका वास्तविक अर्थपना कैसे नहीं समझा है ? अर्थात् — अस्पष्ट पदार्थ परमार्थभूत न होकर अनर्थ है यह तुमने कैसे जाना ? बताओ ? इसके उत्तर में फिर भी तुम यों कहो कि निज स्वरूप माने गये अस्पष्टपने करके उसका प्रतिभास ही नहीं होता है । अतः वह अस्पष्ट अर्थ अवास्तविक है । जैसे कि बन्ध्यापुत्रका बन्ध्या के पुत्रपने करके 1 9
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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