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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यदि पुनर्येन रूपेण प्रसिद्धो दंडादिस्तेन लक्षणं, देवदत्तश्च येन रूपेणापसिद्धस्तेन लक्ष्य इति प्रतीतेः प्रसिद्धस्य लक्षणत्वमप्रसिद्धस्य तु लक्ष्यत्वमिति मतं, तदा कथं लक्ष्यलक्षणयोस्तादात्म्यैकांतः स्याविरुद्धधर्माध्यासात् । ततः कथंचिद्भिन्नयोरभिन्नयोश्च लक्ष्यलक्षणभावः प्रतीतिसद्भावात् सर्वथा विरोधाभावात, अन्यथा लक्ष्यलक्षणशून्यतापत्तेः।।
यदि फिर आक्षेप करनेवाले तुम्हारा यह मन्तव्य होय कि जिस स्वरूप करके दण्ड, टोपी, कुण्डल, आदिक प्रसिद्ध हो रहे हैं, उस प्रसिद्ध स्वरूप करके वे दण्ड आदिक लक्षण हैं, अपने अप्रसिद्ध स्वरूपों करके दण्ड आदिक लक्षण नहीं हैं तथा उसी प्रकार जिस स्वरूपकरके देवदत्त अप्रसिद्ध हो रहा है उस अप्रसिद्ध स्वभावकरके ही देवदत्त लक्ष्य माना गया है, अपने प्रसिद्ध हो रहे स्वभावों करके देवदत्त लक्ष्य नहीं है । क्योंकि इस प्रकार लोकमें बालक, बालिकाओंतकको प्रतीति हो रही है । सम्पूर्ण जन प्रसिद्ध हो रहेको लक्षणपना इष्ट करते हैं और अप्रसिद्ध हो रहेको तो लक्ष्यपना समझा जा रहा है। ऐसा मन्तव्य होनेपर आचार्य कहते हैं कि तब तो आप अच्छा कह रहे हैं, किन्तु ऐसी अभेदकी दशामें अप्रसिद्ध लक्ष्य और प्रसिद्ध लक्षणका एकान्तरूपसे तादात्म्य भला कैसे होगा ? क्योंकि प्रसिद्धि और अप्रसिद्धिकी अपेक्षा लक्षण और लक्ष्यमें विरुद्धधर्मीका अधिकार जम रहा है । तिस कारणसे जैसे प्रसिद्धि अप्रसिद्धिके एकान्तको आपने लक्षण और लक्ष्यमें से उठा लिया है, उसी प्रकार अभेद एकान्तको भी निकाल दीजियेगा । तैसा होजानेसे कथंचित् भिन्न और अभिन्न होरहे दो पदार्थों में लक्ष्यलक्षणभाव बनेगा । कथंचित् भिन्न अभिन्न अथवा कथंचित् प्रसिद्ध अप्रसिद्ध पदार्थों में ही लक्ष्यलक्षणभावको प्रमाणोंसे सिद्ध करनेवाली प्रतीतियां विद्यमान हैं। इस सिद्धान्तमें सभी प्रकारों से किसी भी प्रकारसे विरोध दोषका अभाव है, अन्यथा यानी उक्त " कथंचित् स्वरूप जीवन रसायनका अतिक्रमण कर दूसरे प्रकारोंसे लक्ष्यलक्षणभाव माना जायगा तब तो लक्ष्य और लक्षण दोनोंके शून्यपनका प्रसंग हो जायगा । जैसे कि अग्नि और उष्णताका भेद माननेपर नैयायिकोंके यहां अग्निस्वरूप आधारके विना निराधार होरही उष्णता तो मर जायगी और उष्णतासे रीती अग्नि भी स्वभावोंसे रहित होरही शून्य हो जायगी । सर्वथा अभेद पक्षमें भी ज्ञानका नाश हो जानेसे आत्माका नाश अवश्यम्भावी है । ऐसी दशामें जगत्से लक्ष्यलक्षणभाव सर्वथा उठ जायगा ।
संवृत्या लक्ष्यलक्षणभाव इति चेन्न, संवृत्तेरुपचारत्वे मुख्याभावेऽनुपपत्तेः । मृषात्वे न संवृत्तिर्नाम यया तद्भावः सिध्येत् । विचारतोनुपपद्यमाना विकल्पबुद्धिः संवृतिरिति चेत्, कथं तया लक्ष्यलक्षणभावस्तस्य तत्रावभासनादिति चेत् सिद्धस्तर्हि बौद्धो लक्ष्यलक्षणभावः तद्वदबौद्धोपि किं न सिध्द्येत् ? विकल्पादहिभूतस्यासंभवात् इति चेन्न, तस्यासंभवे विकल्पविषयत्वायोगात् । न च सर्वो विकल्पविषयो संभवन्नेव सम्भवतोऽपि विकल्पविषत्वोपपतेः प्रत्यक्षविषयवत् सर्वो विकल्पो संभवद्विषयो किकल्पत्वान्मनोराज्यादिविकल्पवदिति चेत्, सर्व प्रत्यक्ष