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________________ तखार्थचिन्तामणिः commmmmmmmmmmm अंशोंका परिज्ञान नहीं हो पाता है । न जाने किस निमित्तसे कहां क्या नैमित्तिक भाव उपज बैठे । उष्णता शीतताका मिश्रण विशेष होनेपर किसीको शीघ्र श्लेष्म ( जुकाम ) हो जाता है। जिससे कि सेरों रस, रुधिर, आदिको नासिका द्वारसे निकालने योग्य वक्खर सारिखे कफको बनानेके लिये उपयोगी यंत्रालय ( कारखाना ) शरीरमें बन जाता है। सर्वथा हृष्टपुष्ट नीरोग शरीरमें प्लेग हैजा, आदि छूत बीमारियोंका प्रसंग मिलने पर उसी समय शरीरमें महारोग उत्पादक अंश उपज जाते हैं। शुद्ध द्रव्योंके अतिरिक्त अनन्तानन्त शेष रहे जीव और शरीर, अन्न, जल आदिक पदार्थ तो निमित्तोंके मिलते ही झट नैमित्तिक परिणामोंको बनानेके लिये मुंह बांऐं बैठे रहते हैं। जैसे कि लोकमें नाईको धोबीकी, धोबीको कोरियाकी, कोरियाको बढईकी, बढईको किसानकी, किसानको साहुकारकी, साहूकारको राजाकी, राजाको अध्यापककी, अध्यापकको दूकानदानदारकी, दूकानदारको न्यायालयकी, न्यायालयको अपराधियोंकी, इत्यादिक रूपसे परस्परमें एक दूसरेकी आवश्यकतायें पड रहीं हैं, उसी प्रकार जड पदार्थ पुद्गलोंमें भी परस्परकी अपेक्षा रखते हुये अनेक परिणाम हो रहे हैं। बादल आना, वृष्टि होना, बिजली चमकना, ऋतुयें बदलना, सूर्यका एकसौ चौरासी गलियोंपर घूमना, चन्द्रोदय होना, पृथ्वीके गर्भमें विकार होना आंधी, गगनधूरि, कूडा, कचरा, मल मूत्रका सडना इत्यादिक परिणाम अनेक स्कन्धोंको भिन्न भिन्न परिणाम बनानेके उपयोगी निमित्त कारण बना देते हैं । उन निमित्तकारण स्कन्धोंसे जीव या शरीर अथवा जड पदार्थों में विभिन्न परिणतियां वर्त्तती रहती हैं जो कि किसी वृक्षके पुष्पोंका उद्गम कराती हैं, कहीं फल लगाती हैं, कहीं पत्तोंको झाडती हैं, ऋतुओंके योग्य कुत्ता, गधा, भैंसा, आदिके कामविकारोंको उत्पन्न कराती हैं । आम, खरबूजा, ककडी, अमरूद, लुकाट, आलूबुखारे, अनार, आदि फलोंको उगाती हैं । कहीं दक्षिण देशमें चैत्रमासमें ज्वार पकती है, जब कि उत्तर प्रान्तमें अगहन मासमें ही पक जाती है। गिरनारजी प्रान्तमें माघ महीने में ही खरबूजाका फलकाल ( फसल ) आ जाता है, किन्तु आगरा, सहारनपूरकी ओर जेठमें और लखनऊमें वैसाख महीनेमें उनका फलकाल है। कितने ही प्रान्तोंमें आम्रफल चैत्र वैसाख में ही फलित हो जाता है । अनेक स्थानोंपर आषाढ सावन में उनका पकना प्रारम्भ होता है । कुछ आम्र वृक्षोंकी ऐसी जातियां हैं, जिनमें भादोंमें बौर आकर कार्तिकमें पकना प्रारम्भ होता है । कोई कोई आम पूष माहमें भी पकते हैं । इत्यादिक सम्पूर्ण कार्यकारणभाव निमित्त नैमित्तिकोंकी योग्यता मिलनेपर व्यवस्थित हो रहे हैं । जीव या पुद्गलोंमें बडी शक्ति है । " काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या, उत्पातोऽपि यदि स्यात्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः " इस वाक्यसे ध्वनित होता है कि एक छोटासा स्कन्ध भी मचलकर तीन लोकको लौट पौट करनेकी सामर्थ्य रखता है । शुद्ध द्रव्योंके अतिरिक्त अनन्तामन्त द्रव्योंको वह उथल पुथल कर सकता है । पदार्थो में प्रसिद्ध, अप्रसिद्ध, कार्यकारी, अकार्यकारी अनेक स्वभाव भरे हुये हैं । अतः लक्षणको सर्वथा प्रसिद्ध ही और लक्ष्यको सर्वथा अप्रसिद्ध ही कहना न्यायोचित नहीं है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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