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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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मसंभवद्विषयं प्रत्यक्षत्वात् केशोडुकप्रत्यक्षवदिति किं न स्यात् । प्रत्यक्षाभासोऽसंभवद्विषयो दृष्टो न प्रत्यक्षमिति चेत् तर्हि विकल्पाभासोसंभवद्विषयो न विकल्प इति समानः परिहारः।
बौद्ध कहते हैं कि जगत्में से वास्तविक लक्ष्यलक्षणभाव उठजाय कोई क्षति नहीं है। आपत्ति जितनी शीघ्र टले उतनी अच्छी है । स्थूलबुद्धिवाले जीवोंने कल्पना करके लक्ष्यलक्षणभाव गढलिया है । देखो, कभी देवदत्त भी दण्डका लक्षण हो जाता है। देवदत्तको जाननेवाला पुरुष कदाचित् अज्ञात अप्रसिद्ध डण्डेको देवदत्तद्वारा चीन्ह लेता है। अग्नि करके भी अज्ञात उष्णता लक्ष्य हो जाती है । " कहीं नाव लढा पर और कहीं लढा नाव पर” इस नीतिके अनुसार रत्नसे राजा
और राजासे रत्नका लक्ष्य कर अथवा गुणसे गुणी और गुणीसे गुणका लक्षण कर लिया जाता है। वचनसे वक्ताकी और वक्तासे वचनकी या पुस्तकनिर्मातासे पुस्तककी और पुस्तकसे पुस्तक निर्माताकी जांच हो जाती है । अतः लक्ष्य या लक्षण कोई नियत पदार्थ नहीं हैं ।व्यवहारमें कल्पना चाहे जैसी करलो, कोई बालक अपने काठके खिलौनेको या डण्डेको घोडा कहे एतावता क्या वह वस्तुभूत घोडा होकर अपने ऊपर चढाता हुआ अश्ववारको अभीष्ट स्थानपर ले जा सकता है ? कभी नहीं । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि संवृत्ति यदि उपचार स्वरूप मानी जायगी तब तो मुख्यपदार्थको स्वीकार किये विना व्यवहार बनता नहीं है। अतः व्यवहार से लक्ष्यलक्षणभाव मानने वाले को मुख्य लक्ष्यलक्षणभाव भी मान लेना अनिवार्य पडेगा। मुख्य घोडा या सिंह जीवोंके होने पर ही बालक या मदारी खिलौनेमें घोडा, सिंह, हाथी, की कल्पना कर लेता है। सर्वथा असत् खरविषाणका कहीं उपचार होता हुआ नहीं देखा गया है । यदि संवृत्तिका अर्थ बौद्ध झूठा, असत् पदार्थ करेंगे तब तो वह संवृत्तिकल्पना नाममात्रको भी नहीं हुई, जिस संवृत्तिसे कि वह लक्ष्यलक्षणभाव साध दिया जाय । परमार्थभूत पदार्थसे विपरीत पड जानेके कारण झूठी संवृत्ति कुछ भी नहीं हो सकती है। यदि बौद्ध विचारोंसे नहीं सिद्ध हो रही विकल्पबुद्धिको संवृत्ति कहेंगे तब तो हम जैन पूछेगे कि वैसी वस्तुको नहीं विषय करनेवाली उस विकल्पबुद्धिरूप संवृत्तिसे भला लक्ष्यलक्षणभाव कैसे सिद्ध हो सकेगा ? तुम्ही विचारो । आकाशमें कल्पित भूमिपर उपवन नहीं खडा किया जा सकता है। पुनरपि बौद्ध यदि यों कहें कि हम क्या करें उस विकल्पबुद्धिमें उस लक्ष्यलक्षणभावका व्यवहारी जीवोंको प्रतिभास हो रहा है, यों कहनेपर तो हम जैनोंको कहना पडेगा कि तब तो अन्तरंग बुद्धिमें आरूढ हो रहा लक्ष्यलक्षणभाव सिद्ध हो चुका। बस, उसी दृष्टान्तके अनुसार विकल्पबुद्धिसे अतिरिक्त बहिरंग वस्तुभूत भी लक्ष्य लक्षणभाव क्यों नहीं सिद्ध हो जायगा ? फिर भी बौद्ध यदि यों कहें कि व्यवहार विकल्पनाओंसे बहिर्भूत लक्ष्यलक्षणभावका असम्भव हो जानेसे अबौद्ध लक्ष्यलक्षणभाव कोई नहीं है । ग्रन्थकार यों कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि ज्ञापक विकल्पज्ञानसे बहिर्भूत हो रहे उस लक्ष्यलक्षणभाव ज्ञेयका असम्भव मानोगे तब तो उसको विकल्प ज्ञानकी विषयताका