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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः अरण्यरोदनके समान व्यर्थ है । थोडीसी भी बुद्धिको रखनेवाला जिज्ञासु पुरुष वीसवीं, पंचासवीं, तो क्या चौथी, पांचवी, कोटिपर ही द्रव्यपन, सत्त्व, वस्तुत्व, इन सामान्य धर्मों करके लक्ष्य धर्मीका निर्णय कर चुका प्रतीत हो जाता है । लक्ष्यणीय पदार्थको सत् , द्रव्य, या वस्तु समझ रहे बुभुत्सुके लिये उपकारी वक्ता द्वारा लक्षण वाक्य करके विशेष अंशोंकी व्युत्पत्ति करा दी जाती है । लयलक्षणभावको स्वीकार करनेवालोंके यहां सभी पदार्थ, द्रव्य, वस्तु, आदिमें भी अनिर्णय बना रहे यह व्याघात दोषयुक्त वचन है। सबको मानकर पुनः उसमें नहीं निर्णय होनेको कह रहा पुरुष कहीं न कहीं निर्णयको अवश्य स्वीकार करता है । अतः हमको किसीका भी निर्णय नहीं है यों कहनेवाला पुरुष " माता मे वन्ध्या ” के समान स्ववचनका विघात कर रहा है। उस पुरुषको उस सर्वत्र अनिर्णयका ही अपने अनिर्णयस्वरूप करके निर्णय हो रहा है। यदि उस अनिर्णयका । अपने अनिर्णय डील करके भी निर्णय होना नहीं माना जायगा तो सर्वत्र अनिर्णयकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? अर्थात्-सेयमुभयतः पाशारज्जुः, अनिर्णयका अनिर्णय माना जाय तो भी कहीं न कहीं निर्णय होना बन जाता है। अनिर्णयका अनिर्णय ही तो निर्णय है । दो नञ् लगा देनेसे उसका सद्भाव आ जाता है और यदि अनिर्णयका निर्णय माना जाय तब तो सुलभतासे कहीं न कहीं निर्णय हो रहा सब जाता है । अतः सर्वत्र अनिर्णय कहना व्याघात दोषयुक्त होता हुआ उसी प्रकार छलपूर्ण वचन है जैसे कि कोई मीमांसक या बौद्ध विद्वान् वीतराग पुरुषका निषेध करनेके लिये यह युक्ति देता है कि बहुतसे सराग, ढोंगी, बकभक्त, पुरुष भी वीतराग सज्जनके समान चेष्टा करते हैं और वीतराग पुरुष भी कदाचित् पढाते, प्रायश्चित्त देते, प्रमोद भावना पावते हुये, 'सराग पुरुषोंके समान चेष्टा करते हैं । बात यह है कि यह केवल कपटमात्र है । वह विद्वान् अवश्य ही वीतराग और सरागके अन्तस्तलपर पहुंचकर उनके लक्षणोंको पहिचानता है तभी तो वीतराग भी सरागके समान चेष्टा करते हैं। यह सादृश्य मूलक वाक्यको कहता है । मुलम्मा सोनेके समान दीखता है, चांदी सीपके समान भासती है। कृत्रिम, अकृत्रिम, मुक्ताफल एकसे दीखते हैं, यों वखाननेवाला पुरुष असली, नकलीकी परख करना अवश्य जानता है । सिद्धान्त यह है कि सर्वथा अप्रसिद्ध ही लक्ष्य नहीं है । कथंचित् प्रसिद्ध और कथंचित् अप्रसिद्धको लक्ष्य कहना युक्तिपूर्ण जचता है। ___ सर्वथा प्रसिद्धं लक्षणमित्यप्ययुक्तं, वृत्तद्राधिमादिना प्रसिद्धस्य दंडस्य कैश्चिदुरुपलक्ष्यैविशेषैरमसिद्धस्यापि देवदत्तलक्षणत्वप्रतीतेः । न हि प्रतिक्षणपरिणामः स्वर्गप्रापणशक्त्यादि सर्वथा सर्वस्य केनचिदुपलक्षयितुं शक्यते । . आक्षेपकारने पहिले यह बात कही थी कि एकान्त रूप से अप्रसिद्ध हो रहा पदार्थ लक्ष्य होता है और सभी प्रकारों से प्रसिद्ध हो रहा पदार्थ लक्षण हुआ करता है। हम पहिले ल,यके सर्वथा अप्रसिद्ध एकान्तवादका निराकरण कर चुके हैं । कथांचत् ( बहुभाग ) अप्रसिद्ध और कथंचित्
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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