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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
लक्ष्य नहीं माना जाता है। हां कथंचित अप्रसिद्ध और किसी अपेक्षा प्रसिद्ध हो रहे ही अर्थको लक्ष्यपना बनता है | देखिये, अग्नि उष्ण है इस प्रकार विशेष व्यक्तियों स्वरूप वह्नि का अज्ञान रखनेवाले किसी अव्युत्पन्न के सन्मुख किसी ज्ञानीने अग्निका उष्णत्व लक्षण कहा, यहां द्रव्यपनेसे प्रसिद्ध हो रहे और अग्निपनेसे नहीं प्रसिद्ध हो रहे ही अनलको लक्ष्यपना देखा गया है । पशुपनेसे प्रसिद्ध हो रही गायका लक्षण श्रृंगसास्नावत्त्व कर दिया जाता है। अग्निको द्रव्य समझ रहे या गायको सामान्यरूपसे पशु या जीव समझ रहे मुग्धके प्रति वक्ता द्वारा उष्णपना या सींग, सासनासहितपना, लक्षण का सार्थक है । जो द्रव्यरूपसे या वस्तुरूपसे भी उक्त पदार्थों को नहीं समझता है उसकी वहां भी सतपने करके बन रहा है । तभी
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चिकित्सा न्यारी है । ऐसी दशामें अग्निका द्रव्यपना प्रथम समझाने योग्य है। प्रसिद्ध हो रहे और द्रव्यपने करके अप्रसिद्ध हो रहे द्रव्यको लक्ष्यपना सद्द्रव्यलक्षणम् ” कहना समुचित प्रतीत होगा । यदि उत्पाद, व्यय, धौन्यसे सहितपन रूप सत्व भी किसीको ज्ञात न होय तो फिर उस सत्को ही लक्ष्य बनाओ । किन्तु वस्तुपने करके प्रसिद्ध हो रहे और असत् पनकी भिन्नता करके अप्रसिद्ध हो रहे ऐसे सत्को लक्ष्यपना देखा जा रहा है। अन्य प्रकारों से लक्ष्यपना नहीं बनता है । अर्थात्1 -उद्दिष्ट पदार्थका ही लक्षण किया जा सकता है और नामनिर्देश तो किसी न किसी निर्णीत धर्म से युक्त हो रहे पदार्थका किया जायगा । द्रव्यत्व धर्म से प्रसिद्ध हो रही अग्निका लक्षण उष्णत्व हो सकता है । यदि किसीको अग्निमें उष्णपनके समान द्रव्य भी अप्रसिद्ध होय तो दृश्यमान या सम्भाव्यमान अग्निका सत्पने करके प्रसिद्ध हो चुकना है। जो उस अग्निरूप पदार्थको खरविषाण आदि असत् पदार्थों से भिन्न समझता हुआ सत् समझ रहा है उस सामान्य सत् अर्थको द्रव्यपने करके लक्षित किया जा सकता है। सत्पने का भी वहां निर्णय नहीं है तो कमसे कम उसमें वस्तुपने की प्रसिद्धी तो अवश्य हो चुकनी चाहिये । अवस्तु सत्पना नहीं दिखाया जायगा । वस्तुपना भी यदि निर्णीत न होय तो अर्थ क्रियाकारित्व लक्षण करके उस सर्वनाम वाच्य अर्धकी प्रसिद्धि हो चुकना आवश्यक है । उत्तरोत्तर दसवीं, बीसवीं, कोटिपर पहुंचते हुये अप्रसिद्धि बनी रहेगी तो ऐसी दशामें उस लक्ष्यका लक्षण नहीं बनना चाहिये । सौमीं कोटिपर जाकर भी यदि लक्ष्य किसी अंशसे प्रसिद्ध होगया है तो उससे उरली ओरके निन्यानवे लक्ष्योंको सुलभतासे कथंचित् प्रसिद्ध बनाया जा सकता है । असंख्य कोटिपर पहुंकर भी कथमपि नहीं प्रसिद्ध हुयेको तो किन्हीं भी अन्य उपायों करके लक्ष्यपना नहीं बन पाता है । यदि कोई यों कटाक्ष करे कि इस प्रकार चौथी, बीसवीं, सौमी, आदि कोटियोंतक पहुंचते पहुंचते कहीं भी आगे चलकर ठहरना नहीं होने से अनवस्था हो जायगी, आचार्य कहते हैं कि यों तो न कहना । क्योंकि किसी न किसीको आगे चलते हुये कहीं न कहीं तो निर्णय होना देखा जा रहा है। मनुष्य बहुत दूर चलकर भी धर्मीके किसी अंशको नहीं जान पाया है, ऐसा कहनेवाले निजलोपी शून्यवाद के गुप्त चरके सन्मुख लक्षणवाक्य बोलना
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