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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः तबभिन्नमेव लक्ष्याल्लक्षणमग्नेरुष्णादिवदिति चेन्न, विपर्ययप्रसंगात् । तादात्म्याविशेषेप्यात्मोपयोगयोरग्न्योष्णयोर्वोपयोगादिरेव लक्षणमात्मादेः न पुनरात्मादिरुपयोगादेरिति नियमहेत्वभावात् । प्रसिद्धत्वादुपयोगादिलक्षणमिति चेत् , किं पुनरात्मादिरप्रसिद्धः तथोपयोगमेकं कथमात्मोपयोगयोरग्न्युष्णयोर्वा तादात्म्यं प्रसिद्धाप्रसिद्धयोः सर्वथा तादात्म्यविरोधात् । कोई अभेद एकांतवादी कहता है कि सर्वथा भेदवादमें दोष आता है, तब तो लक्ष्यसे लक्षण अभिन्न ही मान लिया जाय । जैसे कि अग्निके उष्ण, दाहकत्व, पाचन, आदि लक्षण अभिन्न हैं, जैन जन आत्मासे उपयोगको कथंचित् अभिन्न मानते ही हैं, हमारे कहनेसे सर्वथा अभेद मानलेवें । अब आचार्य कहते हैं, यह तो न कहना । क्योंकि सर्वथा अभेद पक्षमें विपरीत होनेका प्रसंग हो जायगा। लक्ष्य भी लक्षण बन बैठेगा। जब कि दोनों एक ही हैं, आत्मा और उपयोग अथवा अग्नि और उष्णताके तादात्म्यका कोई अन्तर न रहते हुये भी उपयोग, उष्णता आदिक ही आत्मा, अग्नि, आदिकके लक्षण हो जाय, किन्तु फिर उपयोग, उष्णता, आदिके लक्षण आत्मा, अग्नि, आदि न होय इस तुम्हारी बातका नियम करानेवाला तुम्हारे पास कोई हेतु नहीं है । यदि तुम यों कहो कि अभिन्न हो जानेसे क्या हुआ ? प्रसिद्ध होनेसे उपयोग, उष्णता, आदिक ही लक्षण हैं। और अप्रसिद्ध हुये आत्मा, अग्नि, ये लक्ष्य हैं । यों कहनेपर तो हम जैन पूछेगे कि क्योंजी, फिर आत्मा अदिक क्या अप्रसिद्ध हैं ? उस उपयोगके अनुसार तो वे एक ही हैं । जब कि आपने उपयोग और आत्माका अभेद मान लिया है, तो दोनों ही प्रसिद्ध या दोनों ही अप्रसिद्ध हो सकेंगे । तदात्मक दो पदार्थों में एक प्रसिद्ध और दूसरा अप्रसिद्ध यह तो हो नहीं सकता है। दूसरी बात यह है कि प्रसिद्ध हो रहे उपयोग और अप्रसिद्ध हो रहे आत्मा अथवा अप्रसिद्ध हो रही अग्नि और प्रसिद्ध हो रहे उष्ण गुणका भला तादात्म्य भी कैसे हो सकता है ? क्योंकि प्रसिद्ध अप्रसिद्ध दो पदार्थों में सर्वथा तादात्म्य होनेका विरोध है । तुमको स्वयं कण्ठोक्त उनका कथंचित् भेद मानना पडा। न चैकांतेनाप्रसिद्धस्य लक्ष्यत्वं खरविषाणवत् । नापि प्रसिद्धस्यैव लक्षणवत् कथंचिप्रसिद्धस्यैव लक्ष्यत्वोपपत्तेः द्रव्यत्वेन प्रसिद्धस्य हि वन्हेरग्नित्वेनापसिद्धस्य लक्ष्यत्वमुपलब्ध द्रव्यस्य च सत्त्वेन प्रसिद्धस्य द्रव्यत्वेनापसिद्धस्य लक्ष्यत्वमुपपद्यते सतोपि वस्तुत्वेन प्रसिद्धस्यासत्त्वव्यतिरेकेणापसिद्धस्य लक्ष्यत्वमुपलक्ष्यते नान्यथा । न चैवमनवस्था कस्यचित्कचिन्त्रिर्णयोपलब्धेः । सर्वत्रानिर्णयस्य व्याहतत्वात् तस्यैव स्वरूपेण निर्णयात् । तदनिर्णये वा कथं सर्वत्रानिर्णयसिद्धिः। एक बात यह भी है कि तुमने अप्रसिद्धको लक्ष्य और प्रसिद्धको लक्षण कहा था, वह तो ठीक नहीं दीखता है। कारण कि जो पदार्थ एकांत रूपसे यानी सर्वांग स्वरूपसे अप्रसिद्ध है वह तो खरविषाणके समान लक्ष्य नहीं बन सकता है तथा सर्वथा एकान्त रूपसे प्रसिद्ध हो रहे ही पदार्थको लक्ष्यपना नहीं है, जैसे कि प्रकरणमें दोनों वादी प्रतिवादियोंके यहां प्रसिद्ध हो रहा लक्षण उस समय
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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