SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थ लोकवार्तिक लक्षणभाव है । अतः दण्ड आदिकके समान लक्षण तो लक्ष्यसे सर्वथा भिन्न ही होता है । भला अभिन्न पदार्थ स्वयं अपना ही परिज्ञापक क्या होगा ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । कारण कि अनवस्था दोष हो जानेका प्रसंग आता है। देखिये, - लक्षणसे विशेष रूपकर भिन्न पडा हुआ लक्ष्य भला कैसे सिद्ध होगा? बताओ, भिन्न लक्षणसे जानोगे ? और प्रकृत लक्ष्यके न्यारे लक्षणको यदि न्यारे अन्य लक्षणों से जानोगे तब तो वह लक्षण भी अपने लक्ष्यरूप लक्षणसे भिन्न ही होगा, फिर उसको भी तीसरे, चौथे, आदि लक्षणोंसे ही सिद्ध कर पाओगे । यही तो अनवस्था दोष है। भिन्नभिन्न पडते चले जा रहे पदार्थों से प्रकरण प्राप्त लक्षणोंकी ज्ञप्ति करना असम्भव बन बैठेगा। हां, बहुत दूर भी जाकर यदि किसी अभिन्न हो रहे लक्षण से उस अप्रसिद्ध लक्षणरूप लक्ष्यको साधोगे तब तो सभी लक्षण लक्ष्यसे भिन्न ही होते हैं, यह तुम वैशिषिकोंका एकान्त आग्रह नहीं व्यवस्थित हुआ । दूर जाकर जैसे लक्ष्यलक्षणमें अभेद मानना अनिवार्य पड गया, उसी प्रकार प्रथम ही से क्यों नहीं कथांचेत् भेदाभेदका आश्रय पकड लिया जाता है ? दीर्घदर्शितासे काम लो, दीर्घसूत्रिता से नहीं। तथा यदि प्रसिद्धं तल्लक्षणं लक्ष्यस्य प्रज्ञापकं तदा कुतस्तत्मसिद्धं ? स्वलक्षणांतरादिति चेत्तदपि स्वलक्षणांतरादित्यनवस्था । सुदूरमप्यनुसृत्य यदि लक्षणं स्वरूपत एव प्रसिध्द्येत्तदान सकलं भिन्नमेव लक्षणं लक्षणस्य स्वात्मभूतलक्षणत्वात् । न चामसिद्धं किंचित्कस्यचिल्लक्षणमिति प्रयोगात् । __ दूसरी बात यह है कि सर्वथा भेद पक्षमें लक्ष्य भी लक्षण हो जाय और लक्षण भी लक्ष्य बन बैठे इसको कौन रोक सकता है ? स्वतंत्र हो रहे उदासीन फक्कडोंकी स्वच्छन्दप्रवृत्ति रोके रुकती भी तो नहीं है । यदि यह स्थूल सिद्धान्त माना जाय कि वह प्रसिद्ध पदार्थ ही उस अप्रसिद्ध लक्ष्यका लक्षण हो रहा संता उसका प्रकृष्ट ज्ञान करा देता है, तब तो हम जैन पूछेगे कि उस लक्षणकी सिद्धी कैसे करोगे ? बताओ, यदि उस लक्षणके स्वकीय लक्षणान्तर से उसको प्रसिद्ध माना जायगा, तब तो वह लक्षणान्तर भी अपने न्यारे लक्षणान्तरसे प्रसिद्ध होगा और उस चौथी कोटिके लक्षणकी प्रसिद्धि भी पांचवे आदि लक्षणोंसे होगी, इस तरह जिज्ञासा बढ़ते बढते अनवस्था बन बैठेगी । अत्यधिक दूर भी चलते चलते अनवस्थाके निवारणार्थ यदि लक्षणको निजस्वरूपसे ही प्रसिद्ध कर लिया जायगा तब तो सम्पूर्ण ही लक्षण भिन्न ही होते हैं, यह आग्रह नहीं चला । दसवीं, बीसवीं कोटिपर जाकर लक्षणका स्वात्मभूत धर्म ही लक्षण हो गया । जो पदार्थ अद्यावधि किसीके यहां प्रसिद्ध नहीं है, वह तो कोई भी किसीका भी लक्षण नहीं हो सकता है । इस प्रकार सब कोई कह रहे हैं । अतः कोई लक्षण भले ही लक्ष्यसे भिन्न होय, किन्तु सभी लक्षण तो लक्ष्यसे भिन्न नहीं हैं।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy