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तत्वार्थचिन्तामणिः
सम्मिश्रण हो जाने पर विवक्षित पदार्थका जिस धर्म या धर्मी पदार्थकरके भिन्नपना प्रदर्शित कराया जाता है, वह लक्षण है । जैसे कि सुवर्ण और कालिमाका वर्ण गुरुत्व, कान्ति, आदिकी विशेषतायें लक्षण हैं । भावार्थ — सोनेमें चांदी, तांबा, या किड, कालिमा, मिल रही है, ऐसी दशामें न्यारिया विशेष रंग या कसना अथवा तापजन्यकान्ति आदि लक्षणोंसे सुवर्णके भाग और कालिमाके भागकी परीक्षा कर लेता है । ज्ञान या सूर्यप्रकाशके पहिले सभी पदार्थ अज्ञान अन्धकारकी अवस्था में घुल मिल रहे हैं । उनमेंसे लक्षण द्वारा ही नियत पदार्थों का परिज्ञान किया जा सकता है। क्ष आत्मभूत और अनात्मभूत विकल्पसे दो प्रकारका है। उन दो प्रकारोंमें अग्निके उष्णत्व गुण ( पर्याय) के समान जो वस्तुके शरीरमें तदात्मक होकर प्रविष्ट हो रहा है वह तो आत्मभूत 'है और जो देवदत्त के लक्षण दण्डसमान वस्तुमें तादात्म्य रखकर ओपपोत नहीं हो रहा है, वह अनात्मभूत लक्षण है । तिन आत्मभूत, अनात्मभूत, लक्षणोंमें यहां जीवका उपयोग लक्षण तो 1 आत्मभूत है ऐसा समझना चाहिये ।
लक्षण
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नात्मभूतो जीवस्योपयोगी गुणत्वादग्नेरुष्णवदिति चेन्न, एकांतभेदनिराकरणस्योक्तत्वागुणगुणिनोः, गुणिनः कथंचिदभिन्नस्यैव गुणत्वोपपत्तेरन्यथा गुणगुणिभावविरोधात् घटपटादिवत् । सर्वथा भिन्नमेव लक्ष्यालक्षणं दंडादिवत् इति चेन्न, अनवस्थाप्रसंगात् । लक्षणाद्विभिन्नं लक्ष्यं कुतः सिध्येत् ? लक्षणांतराच्चेत्ततोsपि यदि तद्भिन्नं तदा लक्षणांतरादेव सिध्येदित्यनवस्था । सुदूरमपि गत्वा यद्यभिन्नाल्लक्षणात्कुतश्चित्तत्सिध्येत् तदा न संवै लक्षणं लक्ष्याद्भिन्नमेव ।
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वैशेषिका जैनों के ऊपर कटाक्ष है कि जीवका लक्षण उपयोग तो उसका आत्मभूत लक्षण नहीं है । ( प्रतिज्ञा वाक्य ) गुण होनेसे ( हेतु ) अग्निके उष्ण गुणसमान ( अन्वय दृष्टान्त ) अर्थात् — गुणीसे गुण सर्वथा भिन्न होता है । तभी तो आद्यक्षणमें द्रव्यके रहते हुये भी गुण नहीं उपजने पाते हैं । अग्नि द्रव्यसे उष्ण गुण भिन्न है । उसी प्रकार आत्मासे ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, I भिन्न होते हुये अनात्मभूत हैं । कोई लक्षण आत्मभूत नहीं हो सकता है । घटक लक्षण कलश करना व्यर्थ है । अब आचार्य कहते हैं कि यों वैशेषिकों को नहीं कहना चाहिये। क्योंकि गुण और गुणी एकान्त रूपसे भेद होनेके निराकरणको हम कह चुके हैं । गुणी द्रव्यसे कथंचित् अभेदको प्राप्त हो रहे पदार्थको गुणपना व्यवस्थित होगा । अन्यथा यानी दूसरे प्रकारोंसे गुणगुणीभावका विरोध है । जैसे घटक लक्षण पट नहीं हो सकता है, अथवा सह्यका लक्षण सर्वथा हुआ विन्ध्य पर्वत नहीं हो सकता है । घटका गुण सर्वथा भिन्न पट नहीं है । सगुण पर्वत भी नहीं है । सर्वथा भेद तो जड पदार्थ और चैतन्यका है । किन्तु इनमें लक्ष्यलक्षणभाव या गुणगुणीभाव नहीं माना गया है । इसपर नैयायिक या वैशेषिक यदि यों कहें कि जैसे पुरुषसे दण्ड न्यारा है, देवदत्तसे कुण्डल भिन्न है, इन्द्रदत्तका कालीटोपीके साथ सर्वथा भेद है, किन्तु इनमें लक्ष्य