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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके प्रसंगात् । न चासावहेतुको बाह्यस्याभ्यंतरस्य च हेतोयस्योपात्तानुपात्तविकल्पस्य सन्निधाने सति भावात् । न चैवं परिणामविशेष उपयोगो मतिज्ञानादिव्यक्तिरूपः प्रतिपादितो भवति यथासंभवमिति वचनात् । ततो दर्शनज्ञानसामान्यमुपयोग इति सूक्तं । अकलंक सिद्धान्त अनुसार श्रीविद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि यहां सूत्रमें ग्राह्य, अग्राह्य, संपूर्ण ही चैतन्य या मात्र चेतना नामका अतीन्द्रिय गुण तो उपयोग शब्दसे नहीं पकडे गये हैं। जिससे कि वह सामान्य चैतन्य ही जीवका लक्षण हो जाय तो कौनसा चैतन्य विशेष उपयोग है ? इसका उत्तर तो यह है कि जैसे खडुआ, वाजू , कुण्डल, हंसुली, आदि परिणामोंमें सुवर्णपनेका अन्वय लग रहा है, उसी प्रकार चैतन्यका अन्वय रख रहा परिणामविशेष इस प्रकरणमें उपयोग लिया जाता है, और वह उपयोग परिणाम तो आत्माका है। किन्तु फिर प्रकृति या पृथ्वी आदिक तस्वोंका नहीं है । क्योंकि जडद्रव्योंका परिणाम माननेसे उपयोगको चैतन्यका अनुविधान रखनेवालेपनके अभावका प्रसंग होगा तथा बह चैतन्यानुविधायी परिणाम अहेतुक भी नहीं है । उसके हेतु विद्यमान हो रहे हैं। देखिये, उपात्त और अनुपात्त विकल्पोंको धार रहे बहिरंग कारणके द्वय तथा अभ्यंतर कारणके द्वयका सन्निधान होनेपर वह उपयोग उपजता है। उपयोगके बहिरंगकारण आत्मभूत और अनात्मभूत दो प्रकार हैं । घनांगुलके संख्यातवें भाग या असंख्यातवें भाग क्षेत्रको घेर रही पुद्गल निर्मित स्पर्शन रसना, आदि और मन ये इन्द्रियां तो आत्मभूत हैं । प्रदीप, अंजन, उपनेत्र ( चश्मा ) आदि अनात्मभूत हैं । तथा अन्तरंग कारणोंमें उपयोग लगानेका उपयोगी द्रव्ययोग तो अनात्मभूत कहा जाता है। और भावयोग या क्षयोपशमजन्य लब्धि तो आत्मभूत अभ्यंतर हेतु है। इनमें कितने ही प्रदीप आदि कारण तो उपात्त हैं, और लब्धि आदिक कारण अनुपात्त हैं। एक बात यह भी है कि इस प्रकारका परिणामविशेष उपयोग केवल मतिज्ञान या अवधिज्ञान, आदि अकेली व्यक्तिस्वरूप नहीं कह दिया गया है । क्योंकि पूज्य श्री अकलंकदेवने उपयोगके लक्षणमें " यथासम्भवम् ” इस प्रकार पदप्रयोग किया है । तिस लक्षणके घटक अवयव पदसे सामान्यरूप करके सभी दर्शन और यावन्मात्र ज्ञान व्यस्तरूपसे उपयोग हो जाते हैं । यह ढंग बहुत अच्छा कहा गया है । यहांतक सूत्रके उद्देश्य दलका अकलंकलक्षणपूर्वक अच्छा निरूपण कर दिया गया है । सामान्य उपयोगको जीवका लक्षण कहना बहुत अच्छा है । किं पुनर्लक्षणं ? परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणं । हेमश्यामिकयोवर्णादिविशेषवत् । तद्विविधं आत्मभूतानात्मभूतविकल्पात् । तत्रात्मभूतं लक्षणमग्नेरुष्णगुणवत्, 'अनात्मभूतं देवदत्तस्य दंडवत् । तत्रेहात्मभूतं लक्षणमुपयोगो जीवस्येति प्रतिपत्तव्यं । किसीका प्रश्न है कि विधेय दलमें पडे हुये लक्षणका फिर क्या लक्षण है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर करते हैं कि पररपरमें एक दूसरेसे बन्धरूप या अबन्ध रूप
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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