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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उन स्वतत्त्वोंमें जो कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुआ भाव है और जो कर्मोके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ विशेष भाव है, इनके प्रकार हो रही उन बारह व्यक्तियोंमें सामान्य रूपसे व्याप रहा उपयोग तो इस जीवका लक्षण है 1
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क्षयोद्भवो भावः क्षायिको भावस्तस्य व्यक्ती केवलज्ञानदर्शने गृह्येते, क्षयोपशमजो मिश्रस्तस्य च व्यक्तयो मत्यादिज्ञानानि चत्वारि मत्यज्ञानादीनि त्रीणि चक्षुर्दर्शनादीनि च गृह्येते तत्रैवोपयोगसामान्यस्य वृत्तेरन्यत्रावर्तनात् । तद्यापि सामान्यमुपयोगोस्य जीवस्य लक्षणमिति विवक्षितत्वात्, तद्व्यक्तेर्लक्षणत्वे लक्षणस्याव्याप्तिप्रसंगात् । वाह्याभ्यंतरहेतुद्वयसन्निधाने यथासंभवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग इति वचनात् ।
क्षय से उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक कहा जाता है। नौ क्षायिक भात्रोंमें यहां उसके विशेष व्यक्तिरूप केवलज्ञान और केवलदर्शन दो भाव ग्रहण किये जाते हैं । तथा कमाँके क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ मिश्रभाव सामान्यरूप से अठारह व्यक्तियोंमें व्याप रहा है । किन्तु यहां प्रकरण अनुसार उस क्षायोपशमिककी मतिज्ञान आदि चार व्यक्तियां और कुमतिज्ञान आदि तीन व्यक्तियां तथा चक्षुदर्शन आदि तीन व्यक्तिविशेष इस प्रकार दश मिश्रभाव पकडे जाते हैं । उन दो क्षायिक भाव और दश क्षायोपशमिक भाव इस प्रकार बारह व्यक्तिविशेषोंमें ही उपयोग सामान्यकी वृत्ति हो रही है। अन्य दान, सम्यक्त्व, संयमासंयम आदिमें उपयोग सामान्य नहीं वर्तता है । अतः उन बारह व्यक्तियोंमें व्यापनेवाला सामान्यरूप उपयोग इस प्रकरणप्राप्त जीव तत्त्वका लक्षण है, ऐसा अर्थ सूत्रकरको विवक्षित हो रहा है । यदि सामान्य उपयोगको लक्षण नहीं कर उस उपयोगकी विशेष व्यक्ति हो रहे मतिज्ञान या कुश्रुतज्ञान अथवा चक्षुदर्शन आदिमें से किसी एक व्यक्तिको जीवका लक्षण होना माना जायगा तो लक्षणके अव्याप्ति दोष हो जानेका प्रसंग होगा, जैसे कि गौका लक्षण कपिलपना करनेसे अव्याप्त आती है उसी प्रकार मतिज्ञानको जीवका लक्षण बनानेसे पहिले तीन गुणस्थानोंतक के जीवों में या केवल ज्ञानियोंमें लक्षण घटित नहीं होगा, चक्षुदर्शनको ही जीवका लक्षण कह देने से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, जीवोंमें तथा तेरवे चौदहवें गुणस्थानवाले आत्माओं या सिद्धों में लक्षण समन्वय नहीं होनेसे लक्षण अव्याप्त हो जायगा । श्री अकलंक देवकृत राजवार्तिक नामक आकर ग्रन्थमें इस प्रकार कथन किया गया है कि आत्मभूत और अनात्मभूत दो बहिरंग कारण और अनात्भूत, आत्मभूत दो अन्तरंग कारणके यथायोग्य सन्निधान होनेपर ज्ञातादृष्टा, आत्माके चैतन्यका अन्वय रखनेवाला परिणाम विशेष उपयोग है । इस प्रकार सामान्य उपयोगको जीवका लक्षण आम्नायसे माना गया चला आ रहा है
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अत्र हि न चैतन्यमात्रमुपयोगो यतस्तदेव जीवस्य लक्षणं स्यात् । किं तर्हि ? चैतन्यानुविधायी परिणामः स चोपलब्धुरात्मनो न पुनः प्रधानादेः चैतन्यानुविधायित्वाभाव