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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
___ इस प्रकार जीवके अनुजीवक निज तत्त्वोंका व्याख्यान कर अब जीवके लक्षणकी व्याख्या करनेके अभिलाषुक श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्रको स्वतंत्रतापूर्वक दूसरोंके लिये स्पष्ट कह रहे हैं।
उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥ अन्तरंग, बहिरंग, कारण मिलनेपर ज्ञाता, दृष्टा, आत्माके चैतन्य अंशका अनुविधान करनेवाला उपयोग परिणाम तो जीवका लक्षण है ।
जीवस्येत्यनुवर्तते । कः पुनः स्वतत्त्वलक्षणयोर्विशेषः ? स्वतत्त्वं लक्ष्यं स्याल्लक्षणं च लक्षणं । लक्षणं तु न लक्ष्यं इति तयोर्विशेषः।
द्वितीयाध्यायके पहिले सूत्रसे जीवस्य इस पदकी अनुवृत्ति कर ली जाती है । तैसा होनेपर जीवका लक्षण उपयोग है । ऐसा वाक्य अर्थ बन जाता है । यहां किसीका प्रश्न है कि पूर्व सूत्रमें जीवके स्वतत्त्वका निरूपण किया गया है । और इस सूत्रमें जीवका लक्षण कहा गया है। अतः बताओ कि फिर स्वतत्त्व और लक्षणमें क्या विशेषता ( अन्तर ) है ? अब आचार्य महाराज समाधान करते हैं कि स्वतत्त्व तो लक्षण करने योग्य हो रहा स्यात् लक्ष्य भी हो जाता है । और कथंचित् लक्षण भी हो जाता है । किन्तु लक्षण तो लक्षण ही रहेगा, कथमपि लक्ष्य नहीं हो सकता है । इस ढंगसे उन स्वतत्त्व और लक्षणमें अन्तर है, अर्थात्-जीवके जो निजतत्त्व हैं वे जीवकी ही आत्मा हैं । अतः जीव लक्ष्य है, तो वे स्वतत्त्व भी लक्ष्य है । स्वतत्व कदाचित् जीवके लक्षण भी हो जाते हैं, हां उपयोग सर्वदा लक्षण ही रहेगा। अतः व्याप्यव्यापकभाव या व्यक्ताव्यक्तभावसे इनमें विशेषता पायी जाती है। अथवा स्वतत्त्वों में कितने ही भाव जीव लक्ष्य के समान व्यतिकीर्ण हो रहे हैं। वे स्वयं छिपे हुये हैं । किन्तु लक्षण तो व्यावर्तक हो रहा व्यक्त होना चाहिये, अतः लक्षण तो लक्षण ही है। स्वतत्त्वोंमें कई लक्ष्य हैं । क्योंकि उन भावोंसे ही तो जीवपिण्ड व्यवस्थित है । भावोंके अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं है। हां, उनमेंसे कुछ भाव तो जीवके लक्षण भी हो जाते हैं।
यद्येवं किमत्र जीवस्य स्वतत्त्वं लक्षणमित्याह ।
प्रश्नकर्ता कहता है कि यदि स्वतत्त्व और लक्षणकी इस प्रकार व्यवस्था है तो बताओ, त्रेपन स्वतत्त्वोंमे कौनसा स्वतत्त्व जीवका स्वलक्षण माना जाय ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी सिद्धांतमार्गको बताते हुये कहते हैं ।
तत्र क्षयोद्भवो भावः क्षयोपशमजश्च यः । तद्यक्तिव्यापि सामान्यमुपयोगोस्य लक्षणं ॥ १ ॥