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________________ ५१ वाडी, २५०० प्रकार अव्यवस्था मच जानेसे नास्ति हो जानेवाले भावको उसके स्वभावपनके अभावका साधन कर रहे वादियों के यहां सम्पूर्ण तत्त्वोंका अभाव हो जाना किस करके रोका जा सकता है ? अर्थात् - प्रतिक्षण के विवर्त्तीको द्रव्यका स्वभाव न माननेपर कूटस्थपनका प्रसंग होगा । वस्तुका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है, अर्थक्रिया न होनेसे वस्तुत्वकी हानि होते हुये जीवतत्त्वका ही अभाव हो जायगा । नाशशील भाव जैसे आत्मा के नहीं माने जाते हैं, उसी प्रकार अजीव तत्त्वोंके भी नाश होनेवाले विवर्त्त तो स्वभाव न हो सकेंगे। तब तो जीव, अजीव, सबके वस्तुत्वकी क्षति हो जानेसे शून्यवाद आगया । किन्तु वह तो आक्षेपकारको इष्ट नहीं पडेगा । तिस कारणसे स्याद्वादियों के यहां यह सिद्ध हो जाता है कि चाहे सर्वदा स्थित रहनेवाला शाश्वत परिणाम हो अथवा कदाचित् स्थिर रहनेवाला अशाश्वत परिणाम होवे सब सभी वस्तुओंके तदात्मक स्वभाव माने जाते हैं । इसी ढंगसे कदाचित् होनेवाले उन औपशमिक आदि भावोंको भी आत्माका स्वभावपना सिद्ध हो जाता 1 । स्याद्वाद सिद्धान्तको माननेवाले जैनों के यहां वस्तुके अनेक स्वभाव तो एक क्षणस्थायी ही हैं । और कितने ही स्वभाव बहुत क्षणांतक ठहरनेवाले हैं तथा अनन्त स्वभाव सर्वदा नित्य स्थित रहते हैं । देवदत्तकी बाल्य, कुमार, युवा, अवस्थायें तदात्मक स्वभाव होती हुई नष्ट होती रहती हैं । फिर भी जन्मसे लेकर मरण पर्यंत ही देवदत्त स्थिर रहता है। कोई भी द्रव्य, कूटस्थ नित्य नहीं है । प्रतिक्षण अनेक उत्पाद, व्यय, धौव्य, उसमें पाये जाते हैं, तभी वह सत् बना रह सकता है । मधुमक्खियों के समुदाय प्राप्त छत्तेमेंसे अनेक मधुमक्खियां आतीं जातीं रहतीं हैं । उसी प्रकार द्रव्यमें अनेक स्वभावों के उत्पाद, विनाश, होते रहते हैं । संसार अवस्थामें तदात्मक रूपसे हो जा चुके औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, भावों का नाश हो चुका है । फिर भी मोक्ष अवस्थामें उन भावोंका अवस्थाता नित्य द्रव्य आत्मा या चेतना आदि गुण विद्यमान हैं । क्षायिकभाव, पारिणामिकभाव, शास्त्रत गुण इनके बने रहनेसे परिशुद्ध हो रहा जीव द्रव्य अनन्तकालतक के लिये सिद्ध हो जाता है। सूक्ष्मतासे विचारो तो प्रतिक्षण पर्याय रूप हो रहे क्षायिका और पारिणामिक भावों का भी परिवर्तन हो रहा है । एतावता द्रव्यस्थिति और भी सुदृढ हो जाती है । चर्म या लोहपत्ती अथवा डोरीको लपलपाते रहनेसे वे अत्यधिक कालान्तरस्थायी होते हुये पुष्ट बन रहते हैं। यहांतक जीवके तदात्मक हो रहे त्रेपन भावोंकी सिद्धि कर दी गयी है । विशेष यह कहना है कि जैसे कर्म शरीर के अनुसार आत्माके औपशमिक आदि भाव होते हैं, उसी प्रकार नोकर्मशरीर अनुसारके भी यथासम्भत्र औपशमिक आदि भाव लगाये जा सकते हैं । द्रव्य क्षेत्र काल भाव भी स्वतंत्र रूपसे अथवा कर्म, नोकर्मोकी विभिन्न परिणामित शक्तियों द्वारा जीवा के अनेक परिणामों के सम्पादक हैं । भावार्थ – कर्मोंके उदय आदि समान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अथवा कर्मका वातावरण भी जीवों के सुखदुःख मोक्ष आदि कार्यों के निमित्त कारण 1 एवं जीवस्य स्वतन्त्रं व्याख्याय लक्षणं व्याचिख्यासुरिदं सूत्रमाह ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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