________________
तत्वार्थश्लोकवार्तिके
कूटस्थात्मकतापत्तेः सर्वतार्थक्रियाक्षतेः । वस्तुत्वहानितो जीवतत्त्वाभावप्रसंगतः ॥ १९ ॥ तथा च नाशिनो भावाः स्वभावा नात्मनस्तथा । अनात्मनोऽपि ते न स्युरिति तद्वस्तुता कुतः ॥ २० ॥ एवं निःशेषतत्त्वानामभावः केन वार्यते । नास्तिभावस्वभावत्वाभावसाधनवादिनाम् ॥ २१ ॥ ततः स्याद्वादिनां सिद्धः शाश्वतोऽशाश्वतोपि च । स्वभावः सर्ववस्तूनामिति नुस्तत्स्वभावता ॥ २२ ॥
कोई आक्षेप करता है कि आप जैन औपशमिकभाव और आदिपदसे ग्रहण किये गये क्षायोपशमिक, औदयिक भावोंका नाश मोक्ष अवस्था में मानते । ऐसा होनेसे तो औपशमिक आदि भावोंको जीवका स्वभावपना नहीं आया। क्योंकि जिसका स्वभाव है वह स्वभाववान् के नष्ट होनेपर भले नष्ट हो जाय, किन्तु स्वभाववान् के नहीं नष्ट होनेपर तो उसका वह स्वभाव नष्ट नहीं होता है । जबतक अग्नि है उसका उष्णतास्वभाव सदा स्थिर रहता है । कस्तूरी कभी गन्धरहित नहीं रहती है । अतः औपशमिक आदिकोंका आत्माके विद्यमान होनेपर भी यदि नाश मान लिया जायगा तो वे जीवका स्वभाव नहीं ठहर सकते हैं । अब आचार्य महाराज कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि यों तो प्रत्येक क्षणमें नवीन नवीन हो रहे पर्यायों को भी उस पर्यायी के स्वभाव होनेकी हानि हो जायगी । अर्थात् - प्रत्येक द्रव्यके पूर्वक्षणभावी पर्यायोंका नाश होकर उत्तर क्षण नवीन नवीन पर्याय उपज रहे हैं। अतः आप आक्षेपकारके विचार अनुसार वे क्षणिक पर्याय उस पर्यायी स्वभाव नहीं ठहर पायेंगे । अशुद्ध द्रव्य अग्नि की भी तो उष्णता पर्याय प्रति क्षणमें बदल रही हैं। मध्य अवस्थामें या मध्यान्ह कालमें अग्निकी जितनी तीव्र उष्णता है उतनी प्रातः कालमें वा आद्यअवस्थामें नहीं है । ज्येष्ठ मासका ताप माघ मासमें दुर्लभ हो जाता है । प्रतिक्षण होनेवाले पर्यायों को यदि उस पर्यायी स्वभाव नहीं माना जायगा, तब तो पदार्थोंके कूटस्थ आत्मकपनेकी आपत्ति बन बैठेगी, इस ढंगसे सभी प्रकारों करके अर्थक्रियाकी क्षति हैं । और ऐसा हो जानेसे जीव तत्त्वके अभावका प्रसंग हो
1
हो जानेसे वस्तुत्वकी हानि हो जाती जायगा, और तिस प्रकारकी अवस्था में
I
आत्माके हो रहे तिस प्रकार नाश होनेवाले प्रतिक्षणवर्ती परिणाम तो आत्मा के नहीं कहे जा सकते
हैं, तथा आत्मासे भिन्न पुगल तत्त्व, धर्म द्रव्य, आदिके भी वे क्षणिक सकेंगे । ऐसी दशा में जीव और अजीव पदार्थों को भला वस्तुपना कैसे
विवर्त उनके स्वभाव न हो रक्षित रह सकता है ? इस