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तत्त्वार्थचिन्तामणिः ।
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आदि स्वभावसाहतपना ठीक नहीं जचता है। यानी जीवके तदात्मक स्वभाव औएशमिक आदिक भाव नहीं है । इस प्रकार कोई नैयायिक या बौद्ध दूसरे विद्वान् समझ बैठे हैं । अब आचार्य उत्तरपक्ष कहते हैं उसको सुनो।
तदसंगतमादेशवचनादेव देहिनः । तेषां तद्रूपताभीष्टेरत्यागाच कथंचन ॥ १५ ॥ चित्स्वभावतया तावन्नैषां त्यागः कथंचन । क्षायोपशमिकत्वोपशमिकत्वेन तत्क्षये ॥ १६ ॥ तेषामौदयिकत्वेन नैव स्यानिःस्वभावतः । मोक्षाभावोपि न पुंसः क्षायिकाद्यविनाशतः ॥ १७ ॥
उन पण्डितोंका वह कथन असंगत है । क्योंकि अपेक्षापूर्वक वचनसे ही हम औपशमिक भावोंका त्याग और कथंचित् उन भावोंका अत्याग दोनों बातोंको स्वीकार करते हैं। चैतन्य स्वभावपने करके कथंचित् उन भावोंका त्याग नहीं होता है। अर्थात्-अन्वित होनेवाले चैतन्य भावका सर्वदा सद्भाव है । अतः जीवके उन परिणामोंके साथ तद्रूपपना · हमको अभीष्ट है । शिष्यको नहीं पढाते समय भी गुरुका गुरुपना सदा अवस्थित रहता है । सेवाकार्य न कराते हुये भी स्वामीमें सेवकका आधिपत्य अक्षुण्ण बना रहता है । उसी प्रकार जो ही चैतन्य परिणाम पहिले निमित्तजन्य भावोंमें ओत पोत ठुस रहा था वह सिद्ध अवस्थामें भी चैतन्यभाव शुद्ध होकर दमक रहा है । अतः चैतन्य स्वभावपनेसे तो इनका किसी भी ढंगसे त्याग नहीं है, हां क्षायोपशमिकपन या औपशमिकपन, करके उन ज्ञान आदि या सम्यक्त्व आदि भावोंका क्षय हो जानेपर तथा औदयिकपन करके उन गति आदिक भावोंका मोक्ष अवस्थामें नाश हो जानेपर तो आत्माका स्वभावरहितपना नहीं प्रसंग प्राप्त होगा तथा द्वितीय विकल्प अनुसार पुरुषके मोक्षका अभाव भी नहीं होगा। क्योंकि क्षायिक या पारिणामिक हो रहे केवलज्ञान, जींवत्व, अस्तित्व, आदि भावोंका विनाश नहीं हुआ है। कपडेका बना हुआ चोला उतार देनेसे मनुष्य मर नहीं जाता है । औपशमिक, क्षायोपशमिक, और औदयिकभाव भले ही अपने उपरिष्ठात् रंगे हुये रूपसे नष्ट हो जाय, किन्तु क्षायिक और पारिणामिकभाव अक्षुण्ण तदवस्थ हैं । अतः जीव सर्वथा स्वभावोंसे रहित नहीं हुआ और व्यर्थका टण्टा बखेडा हट जानेसे मोक्ष भी बडी प्रसन्नतापूर्वक हो जाती है ।
न चौपशमिकादीनां नाशाजीवास्वभावता । प्रतिक्षणविवर्तानां तत्स्वभावत्वहानितः ॥ १८ ॥