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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिके भव्याभव्यत्वयोर्जीवस्वभावत्वं विभाव्यते । पारिणामिकतायोगाचेतनत्त्वविवर्तवत् ॥ ११ ॥ चेतनत्वस्वभावत्वमात्मनोऽसिद्धमित्यसत् । खोपयोगस्वभावत्वसिद्धेः प्रागभिधानतः॥ १२ ॥ पांचवे पारिणामिक भावोंमें पडे हुये भव्यत्व, अभव्यत्व, भावोंमें ( पक्ष ) जीवस्वभावपना विचार लिया जाता है ( साध्य ), पारिणामिकपनेका तादृश्य सम्बन्ध होनेसे ( हेतु) चेतनत्व ( जीवत्व ) नामक विवर्त्तके समान ( अन्वयदृष्टान्त )। यहां यदि कोई चार्वाक या वैशेषिक यों कहें कि आत्माका चैतन्यस्वभावपना तो असिद्ध है, आचार्य कहते हैं कि यह उनका कहना असत्य है । क्योंकि ग्रन्थकी आदिके पहिले प्रकरणमें आत्माके निज उपयोग स्वभावपनकी सिद्धिका कथन हो चुका है । अभी क्षायोपशमिक भावोंको गिनाते समय पांचवे सूत्रका विवरण करते हुये भाषाभाष्यमें इस बातपर बहुत बल दिया जा चुका है कि ये औपशमिक आदि त्रेपन भाव सब जीवके ही तदात्मक परिणाम हैं। नन्वौपशमिकादीनां त्यागश्चेनिर्वृतात्मनः । निःस्वभावत्वमासक्तं नैरात्म्यं सर्वथा ततः ॥ १३ ॥ तदत्यागे तु मोक्षस्याभावः स्यादात्मनः सदा। ततो न तत्स्वभावत्वं जीवस्येत्यपरे विदुः ॥ १४ ॥ स्वपक्षका अवधारण करते हुये किसीका यहां पूर्वपक्ष है कि मोक्षको प्राप्त हो चुके आत्माके यदि " औपशमिकादि भव्यत्वानां च " इस सिद्धान्त अनुसार मोक्ष अवस्थामें औपशमिक, औदयिक, आदिक भावोंका त्याग है, तब तो मुक्तको स्वभावोंसे रहितपनेका प्रसंग प्राप्त होता है । जब कि आप जैनोंने औपशमिक आदि भावोंको आत्माका निजस्वभाव मान रक्खा है, और वैसा हो जानेसे सभी प्रकार आत्माको निरात्मकपना (शून्यपना ) हुआ। यों तो सम्पूर्ण स्वभावोंसे रीता अश्वविषाणके समान मुक्त आत्मा असत् पदार्थ ठहरा। जहां अपना सबका सब खोज मिट जाय, ऐसी मुक्तिके लिये भला कौन सहृदय जीव अभिलाषुक हो सकेगा ! हां, यदि मुक्तजीवके उन औपशमिक आदि भावोंका त्याग नहीं माना जायगा, तब तो सर्वदा ही आत्माके मोक्ष होनेका अभाव हो जायगा, क्योंकि औदायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, भाव ये आत्माके साथ सर्वथा तदात्मक हो रहे चुपटे रहेंगे, जो कि बन्ध अवस्थामें ही होते हैं तो काहेको भला कभी आत्माकी मोक्ष होने देंगे ? तिस कारणसे त्याग और अत्याग दोनों पक्षके अनुसार जीवको उन औपेशमिक
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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