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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
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विवर्त्त होते तो ये भाव आत्माके मोक्षसम्पादक हेतु सर्वथा नहीं हो सकते थे । क्योंकि किसी विवक्षित पदार्थके भाव यदि अविवक्षित अर्थकी मुक्तिके सम्पादक बन बैठे तो अतिप्रसंग हो जायगा । धर्मात्मा जिनदत्तकी शुभ परिणतियां चोर, व्यभिचारी, यज्ञदत्तको कारागृह ( जेलखाना ) से मुक्ति करादेनेकी कारण बन बैठेंगी । इन्द्रदत्तका अभ्यास या व्युत्पत्ति भी महामूर्ख भवदत्तको परीक्षामें उत्तीर्ण करा देवेगी । सिद्धान्त यह है कि औपशमिक और क्षायिकभाव आत्माको मुक्तिके सम्पादक हैं । अतः ये जीवके ही तदात्मक परिणाम हैं । अन्य किसीके विवर्त्त नहीं हैं।
क्षायोपशमिकाः शेषा भावाः पुंजन्मताभृतः । क्षायोपशमिकत्वात्स्युः सम्यग्ह ग्बोधवृत्तवत् ॥ ८॥ जीवस्यौदयिकाः सर्वे भावा गत्यादयः स्मृताः। जीवे सत्येव सद्भावादसत्यनुपपत्तितः ॥ ९॥ कर्मोदये च तस्यैव तथा परिणमत्वतः । तेषां तत्परिणामत्वं कथंचिन्न विरुध्यते ॥ १० ॥
छठी वार्तिकमें कहे जा चुके सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, स्वरूप छह क्षायोपशामिक भावोंसे शेष बच रहे कुज्ञान, दर्शन, लब्धियां, संयमासंयम ये बारह क्षायोपशमिक भाव भी ( पक्ष ) पुरुष से जन्म लेनेपनको धारण करनेवाले हैं, ( साध्य ) क्षयोपशम प्रयोजनको धारनेवाला होने से ( हेतु) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) अंगुली पकडकर पौंचा पकडते हुये सम्पूर्ण शरीर पकड लिया जाता है । सर्व प्रसिद्ध सिद्धत्वभावका दृष्टान्त पाकर नौ क्षायिकभाव पुरुषके ही परिणाम हैं, यह साध दिया गया है । सिद्ध हुये क्षायिक भावोंको दृष्टान्त बनाकर दो
औपशमिक भावोंमें जीवका तदात्मकपना अनुमित करा दिया है। उस ही हेतु से तीन क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र स्वरूपोंमें जीवका तदात्मकपना साधकर उनको दृष्टान्त बनाते हुये शेष कुज्ञानादि क्षायोपशमिक भावोंके जन्मका उपादान कारण जीवको साध दिया है। तथा गति, कषाय, आदिक सभी औदयिकभाव ( पक्ष ) जीवके तदात्मक परिणाम ही आम्नायप्राप्त गाये गये हैं ( साध्य ) जविके होनेपर ही उनका सद्भाव पाया जाता है ( हेतु ) और जीवके नहीं होनेपर गति आदिक भावोंकी उपपत्ति नहीं होने पाती है ( व्यतिरेक व्याप्ति ) कारण कि कर्मके उदयका निमित्त मिलनेपर उस संसारी जीवके ही तिस प्रकार गति, कषाय, आदि स्वरूप तदात्मक परिणाम हो रहा है । अतः उन गति आदिक भावोंको उस जीवका तद्रूप परिणामपना किसी ढंगसे भी विरुद्ध नहीं पडता है ।... .