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________________ तत्वार्थ श्लोक वार्तिके जिस प्रकार कि एकसौ अडतालीस भी कर्मोंसे रहित हो जानेपर हुआ सिद्धत्वभाव उस आत्माका है पुद्गलका या प्रधानका नहीं है, इस प्रकार निश्चय है । नैयायिक, मीमांसक, सांख्य, 1 सबने आत्माकी ही मोक्ष मानी है । उसी सिद्धत्व भावके समान ज्ञान, दर्शन, आदिक नौ क्षायिक भाव भी वास्तविक रूपसे आत्मा के ही हो सकते । देखिये, सबसे पहिले दृष्टांत रूपकर कहा गया सम्पूर्ण कर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुआ सिद्धत्वभाव तो क्षायिक है और वह सिद्धत्वभाव आत्माकातदा स्वरूप है, यह सभी वादी, प्रतिवादियोंके यहां प्रसन्नतापूर्वक मान लिया गया है । क्षायिकभाव ( पक्ष ) आत्मा के ही हो सकते हैं ( साध्य ) क्षायिक होने से ( हेतु ) सिद्धत्वके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) हमारे इस अनुमान में दिया गया हेतु अप्रसिद्ध नहीं है । अर्थात् अन्वयदृष्टान्त में हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति प्रसिद्ध हो रही है । ४६ द्वापशमिको भावो जीवस्य भवतो ध्रुवं । मोक्षहेतुत्वतः कर्मक्षयजन्मदृगादिवत् ॥ ५ ॥ क्षायोपशमिका दृष्टिज्ञः नचारित्रलक्षणाः । भावाः पुंसोऽत एव स्युरन्यथानुपपत्तितः ॥ ६ ॥ प्रधानाद्यात्मका ह्येषा सम्यग्दृष्ट्यादिभावना । न पुंसो मोक्षहेतुः स्यास्सर्वथातिप्रसंगतः ॥ ७ ॥ अनुमान द्वारा क्षायिक भावोंको आत्माका ही परिणाम साधकर अब औपशमिक भावोंको भी जीवके तदात्मक परिणामका अनुमान बनाते हैं । उपराम सम्यक्त्व और उपशम चारित्र ये दो औपशमिक भाव ( पक्ष ) निश्चित ( अवधारित) रूपसे जीवके होते हैं । ( साध्य ) मोक्षका हेतु होनेसे ( हेतु ) कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुये दर्शन, ज्ञान, आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) अर्थात् – “सम्म - सणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे ववहारा णिच्चयदो तत्तिय मइयो णिओ अप्पा" इस युक्तिपूर्ण सिद्धांत अनुसार मोक्षके हेतु बन रहे परिणाम तो जीवके ही तदात्मकभाव माने जाते हैं । अतः जो जो मोक्षका हेतु है, वह जीवनिष्ठ उपादान कारणता निरूपित उपादेयतावान् होता हुआ जीवका परिणाम है । यह व्याप्ति बन जाती है। तथा इस ही कारणसे यानी मोक्षका हेतु होने से ( हेतु ) तीसरे दर्शन, ज्ञान, चारित्रस्वरूप, क्षायोपशमिकभाव भी ( पक्ष ) जीवके ही हो सकेंगे ( साध्य ) अन्यथा यानी जीव आत्मक परिणाम हुये बिना दर्शन, ज्ञान, आदिकों की असिद्धि है । अतः अन्यथानुपपत्ति प्राणको धारनेवाले हेतुसे साध्य की सिद्धि बन बैठती है, यदि कपिल सिद्धांत अनुसार ये सम्यग्दर्शन आदिक पचास या त्रेपनभाव भ्रला प्रधानरूप होते या चार्वाक मत अनुसार भूत पुद्गल के
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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