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, तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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भी अव्यक्त प्रकृतिका व्यक्त परिणाम है । देखो यह कहना यों ठीक नहीं है कि आत्माके तदात्मकपने करके अहंकारका स्वयमेव सम्वेदन हो रहा है । अहं भोक्ता, अहं चेतनः, यहां अहंका आत्माके साथ तदात्मक सामानाधिकरण है । पुनः यदि कापिल यों कहें कि अहं गौरः, अहं स्थूलः, मैं गोरा हूं, मैं मोटा हूं, यहां गोरापन, मोटापन शरीरका अनुविधान करते हैं। उनमें अहंका सम्बन्ध जोडकर आत्माका समभिभ्याहार करना जैसे भ्रान्त है, उसी प्रकार आत्माके साथ तदात्मकपने करके अहंकारका तिस प्रकार सम्वेदन करना भी भ्रान्त है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योकि अहं गौरः, अहं स्थूलः, इन प्रतीतियोंका बाधकप्रमाण विद्यमान है । आत्मा गोरा या मोटा नहीं है । पुद्गल निर्मित शरीर ही गोरा या मोटा होता है । इस प्रकार बाधक प्रमाण उत्पन्न हो जानेसे " अहं गौरः, अहं स्थूलः " यह सम्वेदन भ्रांत कहा जा सकता है। किंतु अहं क्रोधी, अहं ज्ञानवान् , अहं आत्मा, अहं चेतनः, इन प्रतीतियोंका कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अतः अहंकारका पुरुषके तदात्मकपने करके सम्बेदन होना अभ्रान्त है । यदि सांख्य उस सम्वेदनको बाधा देनेवाले इस अनुमानको उठावें कि अहंकार, बुद्धि, इन्द्रियां, आदिक पदार्थ ( पक्ष ) अचेतन ही हैं । ( साध्य ) अनित्य होनेसे ( हेतु, ) घट, पट, आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) ग्रन्थकार कहते हैं कि यह बाधक अनुमान तो समीचीन नहीं है । पुरुषके अनुभव करके व्यभिचार दोष उपस्थित हो जाता है । " बुध्यध्यवसितम) पुरुषश्चेतयते " बुद्धिके द्वारा निर्णीत किये गये अर्थको पुरुष चेतना करता है, उपभोग करता है । इस प्रकार उस पुरुषके अनुभवको भी परकी अपेक्षा होनेसे कभी कभी उत्पत्ति होनेके कारण अनित्यपना सिद्ध है। अतः अनुभव या उपभोगमें अनित्यत्व हेतु रह गया और अचेतनत्व साध्य न रहा । अतः व्यभिचारी हेत्वाभाससे उत्पन्न हुआ वह अनुमान समीचीन नहीं है । तुम सांख्योंका प्रमाण ज्ञान बाधक होता है,
और अप्रमाणज्ञान बाध्य होता है। किन्तु यहां प्रकरणमें तो विपरीत प्रस्ताव ही घटित हो रहा है । जिसको आप सांख्य बाधक कह रहे हैं, वह अप्रमाणज्ञान है, और जिसको आप बाध्य कह रहे हैं, वह अहंकारमें पुरुषके तदात्मकपने करके संवेदन होना तो प्रमाणज्ञान है । आत्मा उपभोग स्वरूप है, अहंकार स्वरूप है, इस सिद्धान्तको हम इस ग्रन्थक आदिमें ही दो सौ पच्चीसवीं वार्तिकसे लेकर दो सौ चवालीसवीं वार्तिकतक सांख्यमतका निरास करते हुये आत्माको उपयोगात्मक सिद्ध करते समय विशदरूपसे कह चुके हैं । दूसरी बात यह भी है कि
क्षायिका नवभावाः स्युः पुरुषस्यैव तत्त्वतः। क्षायिकत्वाद्यथा तस्य सिद्धत्वमिति निश्चयः ॥ ३॥ कृत्वकर्मक्षयाचावत् सिद्धत्वं क्षायिकं मतं । सर्वेषामात्मरूपं चेत्यप्रसिद्धं न साधनम् ॥ ४ ॥