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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिके
क्षायोपशमिक, औदयिक ये पचास भाव तो कमके ही हैं, इस प्रकार नहीं मानना चाहिये । क्योंकि औपशमिक आदिका स्वतंत्र कर्त्ता आत्मा ही है । प्रयोजक हेतु भले ही कर्मोंका उदय, उपशम, आदि अवस्थाको मान लिया जाय, कर्मोंके उपशम, आदिकों करके प्रयोजित किये जा रहे औपशमिक आदि भावोंको जीवका परिणामपना युक्तिसिद्ध है । भावार्थ — युद्धका या नृत्यका बज रहा बाजा 1 लडता नाचता नहीं है। ये सब क्रियायें योद्धा या नर्त्तककी स्वात्मीय कार्य ( करतूतें ) हैं । कारणोंका आदर करना वहांतक ही शोभा देता है, जहांतक कि उपादानकारणोंकी निज सम्पत्तिपर कान डाला जाय । एक चनेका आधा एक दालको चनों भरी हजार मनकी खत्ती में डाल देनेसे पूरे चनोंमेंसे आधे पांचसौ मन चनोंका दावा करना अनीति मार्ग है दूसरी बात यह है कि औपशमिक आदि भावोंमें अन्वितरूपसे चेतनाका सम्बन्ध हो जानेसे भी वे सम्यग्दर्शन, गति, आदिक भाव सब जीव के ही हैं । पुद्गल कर्मके उपादेय नहीं हैं ।
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प्रधानस्यैवैते परिणामा, इत्यप्यनालोचिताभिधानं तत एव । न हि व्यादिभेदेषु यथाक्रममौपशमिकादिषु भावेषु चित्समन्वयो ऽसिद्धस्तेषामहंकारास्पदत्वेन प्रतीतेरात्मोपभोगवत् । न चाहंकारोपि प्रधानपरिणामः पुरुषतादात्म्येन स्वयं संवेदनात् । भ्रांतं तत्तथा संवेदनमिति चेत् न, बाधकाभावात् । अहंकारादयोऽचेतना एवानित्यत्वात् कलशादिवत्येतदनुमानं बाधकमिति चेन्न, पुरुषानुभवेनानैकांतिकत्वात् तस्यापि परापेक्षितया कादाचित्कत्वेनानित्यत्वसिद्धेरित्युक्तत्वादुपयोगसिद्धौ । किं च
कपिल मतानुयायी कहते हैं कि ये ज्ञान, क्रोध, आदिक परिणाम तो प्रकृतिके ही परिणाम हैं । सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, इनकी साम्य अवस्था स्वरूप प्रधान ही परिणाम करता है । आत्मा तो कूटस्थ अपरिणामी है । आचार्य कहते हैं कि यह सांख्यमतियोंका कथन भी उस ही कारणसे अर्थात् क्रोधादिमें चेतनका सम्बन्ध ओत पोत लगा रहनेसे ही अविचारित है । सख्य चैतन्यका अन्य आत्मीय भावोंमें ही स्वीकार किया है, क्रोध वेद आदिमें चैतन्यका स्पष्ट अनुभव हो रहा है । पुनः तुम सांख्य यथाक्रमसे दो, नौ आदि भेदोंको धार रहे, औपशमिक, क्षायिक, आदिक भावों में चैतन्यका समन्वय असिद्ध है, यह तो नहीं कह सकते हो । क्योंकि उन त्रेपन भी भावोंकी चिदात्माका उल्लेख करनेवाले अहंकार के प्रतिष्ठित स्थानपने करके प्रतीति हो रही है । जैसे कि मैं भोक्ता हूं, अहं दृष्टा, अहं चेतयिता, इनमें आत्मीयताकी प्रतीति हो रही है । भावार्थ - प्रकृतिरूप पुंश्चली स्त्रकेि द्वारा सम्पादित कराये गये, आत्मनिष्ठ उपभोगमें जैसे " अहं उपभोक्ता अस्मि " इस प्रकार अहंकारस्थलपनेसे आत्मस्वरूप चैतन्यका भले प्रकार अन्वय हो रहा है, उसी प्रकार औपशमिक, औदयिक, भावोंमें चेतनात्मक अहंकारका समरसरंग जम रहा है । कपिल मतानुयायी यों तो नहीं कह सकते हैं कि " प्रकृतेर्महांस्ततोहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशका पंचभ्यः पंचभूतानि " इस सृष्टिप्रक्रिया के अनुसार अहंकार
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