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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
देखो, स्फटिक, काच, आदिके गांठकी स्वाभाविक परिणाम हो रही स्वच्छताके नहीं माननेपर पुनः जपापुष्प, हरापत्ता, आदि उपाधियोंके सन्निकट भावसे उत्पन्न हुआ लाल रंग, हरापन आदिक परिणाम हुये नहीं प्रतीत होते हैं । किन्तु मूलमें स्वच्छ स्फटिक द्रव्य है, तभी उसमें जपापुष्पके सन्निधानसे औदयिक लालिमा जानली जाती है । वन्ध्या पुत्रको गहने या कपडोंसे नहीं सजाया जा सकता है और न उसके शरीरसे कुछ या पूरा मैल ही निकाला जा सकता है। उसी प्रकार आत्माकी निज सम्पत्ति हो रहे अनादि कालीन पारिणामिक भावोंके बिना उपाधिजन्य औपशमिक, क्षायोपशमिक, ऐसे सम्यक्त्व, ज्ञान, आदिक परिणाम होना तो नहीं बन सकता है । यदि मूलभित्तीको माने बिना ही चित्र खींचा जा सके तो स्वाभाविक परिणामरूप निज शरीरसे रहित हो रहे शशशृंग, आकाशपुष्प, आदिके भी औपाधिक परिणाम होते रहनेका प्रसंग हो जायगा, जो कि किसीको इष्ट नहीं है। तिस कारण यह सिद्धान्त बन जाता है कि जैसे जीवके कर्मोंकी उपशान्ति, क्षीणता, उदय, आदि निमित्तोंसे सादि या धारावाहि अनादिकालसे हो रहे औपशमिक, औदयिक आदि परिणाम साधे जा चुके हैं, उसी प्रकार जीवके उपाधियोंके विना ही गांठके अनादि कालसे उपज रहे परिणाम सिद्ध हो जाते हैं अर्थात्-जीवोंके पांचों प्रकारके परिणामोंको हमने प्रमाणसे सिद्ध कर दिया है । और तैसी व्यवस्था कर चुकनेपर
एतत्समुद्भवा भावा धादिभेदा यथाक्रमम् ।
जीवस्यैवोपपद्यते चित्स्वभाव समन्वयात् ॥२॥
इन उपशम, क्षय, आदिसे भले प्रकार उत्पन्न हो रहे भाव तो यथाक्रमसे दो, नौ, आदि भेदोंको धार रहे हैं । ये भाव सब जीवद्रव्यके ही निजतत्त्व सिद्ध हो जाते हैं (प्रतिज्ञा वाक्य ) क्योंक जीवकी आत्मा बन रहे चैतन्य स्वभावका सम्पूर्ण भावोंमें भले प्रकार अन्वय हो रहा अनुभूत हो रहा है । अर्थात्-हां धारण, द्रव, उष्णता, ईरण, या रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आदिका अन्वय यदि भावोंमें पाया जाता तब तो इनको पुद्गलका निजतत्व कह देते, किन्तु उक्त त्रेपन भावोंमें पुद्गल आत्मकपना नहीं देखा जाता है, अतः ये भाव जीवके ही समझ लेने चाहिये । कोई समयसाररसिक पण्डितमन्य यदि निश्चयनयका अवलम्ब लेकर औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावोंको पुद्गलका कह देवे तो यह उसका आपेक्षिक कथन प्रमाण ज्ञान करनेके लिये आदरणीय नहीं है ।
कर्मणामुपशमक्षयक्षयोपशमोदयप्रयोजना औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौदयिका भावाः कर्मण एवेति न मन्तव्यं, कर्मोपशमादिमिः प्रयुज्यमानादौपशभिकादनिां जीवपरिणामत्वोपपत्तेः चेतनासंबंधात्वाच्च । ___औपशमिक आदि शब्दोंमें प्रयोजन या भव अर्थ में ठण् प्रत्यय करनेपर यों अर्थ किया जाय कि कौके उपशम, क्षय, क्षयोपशम, और उदय, प्रयोजनको धारनेवाले औपशमिक, क्षायिक,