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संपादकीय वक्तव्य
इस वक्तव्यके साथ तत्वार्यश्लोकवातिकका पंचम खंड आपके सामने उपस्थित करने में हमें परमहर्ष होता है । यद्यपि अन्य खंडों की अपेक्षा इस खंडके प्रकाशनमे आशातीत विलंब हो गया है। हमारे इस पुनीत प्रकाशन कार्यमे अनेक प्रकारके विघ्न उपस्थित हुए। कुछ दैविक, कुछ प्रमादजनित, कुछ सामाजिक, कुछ गार्ह स्थिक, और कुछ वैयक्तिक । किसे अधिक प्राधान्य दिया जाय, इसकी चर्चाकी अपेक्षा अनेक कारणोंसे हम इस कार्यको द्रुतगतिसे चलाने में असमर्थ रहे, इसके लिए स्वाध्यायप्रेमी बंवोंसे एवं हमारे सदस्योंसे क्षमा याचना करना ही अधिक श्रेयस्कर है। प्रस्तुत खंड--
गत चार खंडोमें तत्वार्थसूत्रके केवल प्रथम अध्यायपर वातिक और टीका आई है । अब इस प्रस्तुत पांचवें खंड में तत्वार्थसूत्रके द्वितीय अध्याय, तृतीय अध्याय और चतुर्थ अध्यायके प्रमेय आचुके हैं। भगवदुपास्वामिविरचित तत्वार्थसूत्र में तत्वज्ञानकी कितनी महिमा भरी हुई है, इस बातका सहज अनुमान महर्षि विद्यानन्दिस्वामी के द्वारा प्रतिपादित . इस महान दार्शनिक सरणिसे किया जासकता है । महषि विद्यानंदि स्वामीने मूल ग्रन्थकारके अभिप्रायको सुरक्षित रखते हुए विषयका स्पष्टीकरण सवंष रूपसे किया है। द्वितीय अध्यायः-- .: तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारके द्वितीय अध्याय में जीवके स्वतत्वका निरूपण करते हुए औपश. मिकादि जीवके प्रधान भावोंका निरूपण आचार्यने किया है । ये भाव जीवके ही हैं। प्रधान आदिके नहीं, मोझमें भी कुछ भाव पाये जाते हैं। जीवके भेदोंका निरूपण करते हुए संसारी, सयोगकेबली, अयोगकेवलो, एवं मुक्त जीव आदि सभी का संग्रह किया गया है। आत्माके व्यापकत्वका खंडन कर आचार्य ने एके द्रिय जीवोंको युक्ति आगमसे सिद्ध किया है । इसी प्रकार इंद्रियों के विषयको सिद्ध करते हुए इद्रियों के अधिपति जीवको युक्तिसे सिद्ध किया है।
इस अध्यायके द्वितीय आन्हिकमे मात्माके व्यापकस्यको निराकरण कर आत्माके इतस्ततः गमनको समर्थन किया है । जीवों का आकाश प्रदेशमें यथाश्रेणिगति, अनाहारक अवस्था, जन्म व योनिका प्रकार, शरीरों को रवनाका प्रकार, अन्य संप्रदायों के द्वारा कल्लित शरीरका निरास करते हुए तेजस और कार्मणका धाराप्रवाह रूपसे अनादिसंबंध सिद्ध कर दिया गया है। अंतमें आयुकी अनावस्यं और अपवर्त्यदशाको युक्ति और आगमसे सिद्ध कर अन्य वादियों के कथनका निवारण किया गया है।