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________________ (२) तृतीय अध्यायः-- प्रस्तुत अध्यायमें जीवोंके निवासस्थानका वर्णन करते हुए अघोलोकका वर्णन सर्व प्रथम किया गया है, और तदनंतर इस पृथ्वीके आकारके संबंधमे ऊहापोह करते हुए भूभ्रमण वादियोंकी युक्तियोंका सुन्दर तर्कपद्धतिसे निराकरण किया है। आजके भौगोलिक-विज्ञानवादी पृथ्वोके आकार और उसके भ्रपणमें जिन युक्तियों का प्रयोग करते हैं, उनको अकाट्य युक्ति और आगम प्रमाणोंसे आचार्यने निराकरण किया है । एवं स्पष्टतः सिद्ध किया है कि इस अचला पृथ्वीका किसी भी तरह भ्रमण नहीं हो सकता है। भूभ्रमणवादियों के साथ २ अन्य तत्सम. वादियोंका भी निराकरण करते हुए आचार्यने बहुत स्पष्ट रूपसे सूर्य चन्द्रमाके भ्रमणको समर्थन किया है। तदनंतर मध्यलोकका वर्णन कर तत्रस्थ द्वीप समुद्र, पर्वत, क्षेत्र, नदी सरोवर आदियोंका यथागम विवेचन किया है। इसी प्रकार भरत आदि क्षेत्रोंमें कर्मभूमि, भोगभूमिका विधान करते हुए मनुष्य और तिर्याचोंकी जघन्य व उत्कृष्ट आयुका निरूाण किया है। जीवोंके आधारस्थानोंका निरूपण करते हुए आचार्यने अधोलोक और मध्यलोकका सविस्तर वर्णन किया है। साथ ही यथा प्रकरण आचार्य विद्यानन्दस्वामीने बहन बडी विद्वत्ताके साथ सष्टिकर्तववादका खंडन किया है । जगन्नियंता ईश्वरको माननेसे अनेक दोषों का आपात स्वयं हो जाता है.इस बात को अश्रुतपूर्व युक्तियों के द्वारा बहुत विस्तारके साय समर्थन किया है । जगत्कर्तृत्वका निरास इस प्रकरण में बहुत सफलताके साथ किया गया है । इस प्रकार इस तीसरे अध्यायमें अधोलोक व मध्यलोक स्थित जीवों के स्थान, स्थिति, परिस्थितिका सुन्दर विवेचन किया गया है। चतुर्थ अध्याय:-- प्रस्तुत अध्यायमें ऊर्ध्व लोकका वर्णन करते हुए ग्रंथकारने उध्वंलोकस्थित देवोंका निवास दर्शाया है। मवनवासी व्यंतर देवोंका निवास इस मध्यभूमि में होनेपर भी ज्योतिष्क और कल्पवासियोंका निवास इस समय पृथ्वीसे ऊपरले भागमें है। इस विषयका निरूपण करते हुए उन देवोंकी लेश्या, आयु, परिणाम, गति, आदिका यथागम वर्णन किया है । साथ में ज्योतिष्क देवोंके प्रकरणमें मेरुप्रदक्षिणा कर नित्यगमन करनेवाले ज्योतिष्क देवोंका सुन्दर विचार आचार्य देवने किया है। आधुनिक भौगोलिक विद्वानोंका इस प्रकरण में भी आचार्य श्रीने खबर लिया है । पृथ्वी नारंगीके समान गोल नहीं है, और सर्व स्थानो में एकसी चपटी भी नहीं है। उसका भ्रमण भी युक्ति आगमसे विरुद्ध है, सूर्य चन्द्रमाका भ्रमण सतत होता है, सूर्य चन्द्रमाके भ्रमणसे ही दिन रातका विभाग होता है । अन्य ग्रहों के भ्रमणसे सूर्यग्रहण चन्द्रग्रहण आदि होते हैं। इत्यादि बातोंको बहुत ही सुन्दरपद्धतिसे विद्यानन्द स्वामीने सुस्पष्ट सिद्ध किया है व भूभ्रमण वादियोंको निरुत्तर कर दिया है। ___ इस प्रकार इस पंचम खंडमे दूसरे, तीसरे व चौथे अध्यायतकका प्रकरण आचुका है । अब आगे छठे भागमें पांचवा और छठा अध्याय, सातवे भागमें सातवें आठवें, नववें, और दसवें
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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