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________________ ६७८ तत्त्वार्थश्लोकवातिके सम्पूर्ण लोकान्तिक देवोंकी सदैव आठ सागरकी स्थिति है जो कि व्यभिचार दोषोंसे रहित हो रही जान लेनी चाहिये । जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति आठ ही सागरको है। लौका न्तिक देव विशेषताओंसे रहित हो रहे सब एकसे हैं। पांच हाथ ऊंचा इनका शरीर है । शुक्ल लेश्यावाले हैं । त्रिलोकसारमें "चोदसवधरा पडिवोहपरा तित्थयरविणिक्कमणे । एदेसि. मट्ठजलहिट्ठिदी अरिट्ठस्स णव चेव ।। ५४० ॥" इस गाथाद्वारा अरिष्ट जातिके लौकान्ति. कोंको नौ सागरोपम स्थिति कही है। इति श्रीविद्यानन्दि आचार्यविरचिते तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ॥ ४ ॥ इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यविरचित तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकार नामक महान् ग्रन्थमें चौथा अध्याय परिसमाप्त हुआ। . इस चतुर्थ अध्यायके प्रकरणोंकी सारणी संक्षेपसे इस प्रकार है। प्रथम ही देवोंकी चार ही निकायोंको पुष्ट कर आधार नहीं कह कर देवोंका ही कथन करने में सूत्रकारका अभिप्राय दिखलाया है। तीन निकायकी लेश्याओंको साधकर कल्पोपपन्नों में इंद्रादि भेदोंका अंतरंग कारण कोकरके होना कहा है। व्यन्तर और ज्योतिषियोंकी विशेषताओंको बताते हुये प्रवीचारोंकी हीनता होने में पुण्यके उत्कर्षको प्रधानकारण सिद्ध किया है। तभी तो उपरिमदेव प्रवीचाररहित हैं । भवनवासी व्यन्तरों के विशेष भेद भी कर्मोदयजनित कहे गये हैं। मास आदिका भक्षण देवोंमें नहीं है । शब्दनिरुक्तिद्वारा इनके आधार विशेषों की प्रतिपत्ति करादी है ज्योतिष्कदेव कर्मोके आधीन होकर सूर्यविमान चंद्रविमान आदि अनेक विमानोंमें स्थिति कर रहे बताये हैं। कुछ ताराओंको छोडकर मनुष्यलोक सम्बन्धी सभी ज्योतिष्क विमान मेरुको प्रदक्षिणा कर रहे हैं। यहांसे सात सौ नब्बे योजन ऊंचे स्थानसे प्रारम्भकर एकसौ दस योजन मोटे और एक राज लम्बे चौडे आकाशमे ज्योतिष्क विमानोंका सन्दाव है । नीचे, कार, भीतर बाहर विराज रहे विमानोंका क्रम दरशा दिया है। " छक्कदिणवतीससयं दसयसहस्सं खवार इगिदालं । गयणति दुगतेवण्णं थिरतारापुक्खरदलोत्ति" । जम्बूद्वीपमें छत्तीस, लवण समुद्र में एक सौ उनतालीस, धातकी खण्डमें एक हजार दस, कालोदक समुद्र में इकतालीस हजार एकसौ बीस, और पुष्करार्धमें त्रेपन हजार दो सौ तीस स्थिर तारे हैं। इनके अतिरिक्त ढाई द्वीपमें सम्पूर्ण ज्योतिष चक्र सुदर्शन मेरुकी सदा अपनी नियत गति अनुसार प्रदक्षिणा किया करते हैं। एक चन्द्रमा सम्बन्धी एक सूर्य अट्ठाईस नक्षत्र अट्ठाईस ग्रह और छयासठि संख, सतानवै पद्म, पचास नील, ६६९७५०००००००००००००० तारे हैं। एकसो बत्तीस चन्द्रमा सम्बन्धी इतना इतना ही परिवार ढाई द्वीपमें समझ लेना चाहिये । स्वामीजीने भूमीके भ्रमणका अच्छा खंडन कर नक्षत्र मण्डलकी स्थिरताका प्रत्याख्यान किया है । पृथिवीके विदारण होनेका बडा चम.
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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