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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
तो व्याप्य अवश्य झूठी कल्पनाका विषय माना जावेगा । इस सद्भाग्य से मिले हुए अवसरपर योगाचार बौद्ध यदि यों कहे कि तिस ही कारणसे यानी जन्म, क्रम, अक्रम, अर्थ, हिर्भूत पदार्थों की ठीक ठीक सत्ता नहीं बन सकनेसे हम अंतरंग शुद्ध सम्वेदनको ही वस्तुभूत तत्त्व मानते हैं, कार्यं कारण, आधार आधेय, इत्यादि सब व्यर्थका झगडा है । आचार्य कहते हैं यह केवल सम्वेदनाद्वैतका स्वीकार कर लेना भी युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि ब्रह्माद्वैल, शब्दाद्वैत, आदिके समान उस सम्वेदनाद्वैतकी भी कदाचित् प्रतीति नहीं होती है। इस बातका हम पूर्व प्रकरणों में विस्तार करके समर्थन कर चुके हैं। वहां देख लो। यहां यह कहना है कि सभी आत्मा आदि और सभी घट आदि अन्तरंग, बहिरंग, पदार्थोंकी एक अनेकात्मक स्वरूपसे प्रतीति हो रही है तथा बाधकप्रमाणों के असम्भवका अच्छा निश्चय हो चुकना सिद्ध है | अतः यों अनेक धर्मो के साथ तादात्म्य सिद्ध हो जानेपर जीव एक अनेक आत्मक हो रहा सिद्ध हो जाता है । ततः स्वतत्त्वादिविशेषचिंतनं घटेत जीवस्य नयप्रमाणतः । क्रमाद्यनेकांततया व्यवस्थितेरिहोदितन्याय बलेन तत्त्वतः ॥ १४ ॥
तिस कारण जीवके निज तत्त्व आदि विशेषोंका चिन्तन करना नयों और प्रमाणोंसे घटित हो जावेगा। क्योंकि क्रम अक्रम अर्थक्रिया आदि करके अनेकान्त रूपसे जीवको व्यवस्था हो रही है । इस अनेकान्तका यथार्थ रूपसे कहे जा चुके न्यायकीं सामर्थ्य से यहां चौथे अध्याय में प्रकरण अनुसार विवेचन कर दिया गया है ।
इति चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयमान्हिकम् ।
इस प्रकार चौथे अध्यायका दूसरा आन्हिक यहांतक समाप्त हो चुका है ।
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यहां विशेष यों कहना है कि राजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि में "लौकान्तिकानामष्टो सागरोपमाणि सर्वेषाम्" इस सूत्र की व्याख्या की है। मुद्रित श्लोकवार्तिक में ' तदष्टभागोऽपरा" इस सूत्र पर चौदहवार्तिकों को बनाकर विवरण करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्यने पश्चात् चौथे अध्यायको समाप्त कर दिया है । लिखित पुस्तकमें बारहवीं वार्तिकके प्रथम त्रुटिका चिन्ह देकर "लोकान्तिकानां " इस सूत्र को लिखा है । किन्तु वह पीछे क्षेपण किया हुआ प्रतीत होता है । " तदष्टभागोऽपरा इस सूत्र की चौदह वातिक और उनके विवरण में कहीं भी ऐसा स्थान नहीं मिलता है जहां कि " लोकांतिकानाम् " इस सूत्रको डाल दिया जाय, पहिले पोछेके प्रकरण पूर्वापर संगति के लिये हुये जकड रहे हैं । ग्यारहवीं और बारहवीं वार्तिकके बीच में इस सूत्र को घुसेडना कथमपि शोभा नहीं देता है। क्योंकि पहिले ग्यारहवी वार्तिक में नित्यैकान्त वादी सांख्यको आत्मा के छह विका
का होना समझाकर लगे हाथ बारहवीं कारिकामे क्षणिकवादी बौद्धों को भी आत्माके छह विकार होना समझाने का प्रकरण चलाया है। अतः यहां लोकान्तिक, सूत्रका डालना अशोभन चता है। वार्त्तिकों की संख्या के अंक भी ठीक आ रहे हैं। यदि मध्य में सूत्र पड जाता तो वार्तिकों की