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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
बात यह है कि जैन सिद्धांत अनुसार द्रव्यको नित्य माना गया है। इसमें बडा अच्छा रहस्य है। किसी भी पर्यायसे आक्रांत हो रहा द्रव्य अपने परिवारकी शक्तियोंपर अभिमान कर रहा सदा सर्वत्र अन्वित हो रहा है। जैसे कि पचास लाख रुपयोंके अधिपति सेठकी बींस दुकानों में किसी भी दुकान पर विशेष समस्याकी अवस्था में पचास लाखका उत्तरदायित्व झेल लिया जाता है, उसी प्रकार द्रव्यको भूत, वर्तमान, भविष्यकालीन चाहे किसी भी पर्याय में अनाद्यनन्त द्रव्य अन्वित रहता है । एक एक पर्याय में अनन्तानन्त स्वभाव विद्यमाने हैं। जितना गहरा प्रविष्ट हो करके देखेंगे उतना ही अटूट धन दीख जावेगा । यों एक वस्तुमें तीनों काल सम्बन्धी परिणामों की अपेक्षा अनेकात्मकरना है। तथा उत्पाद, व्यय, धोत्र्योंसे युक्त होने के कारण एक द्रव्य अनेकात्मक है | एक वस्तुमें अनेक उत्पाद हो रहे हैं, उतने ही विनाश हो रहे हैं, स्थितियां भी उतनी ही अनन्तानन्त हैं। उत्पन्न, उत्पद्यमान, उत्पत्स्यमान, आदि भेदोंसें अनेक चमत्कार वस्तु हो रहें हैं । वस्तु के संपूर्ण अन्तरंग बहिरंग अभिनयोंको सर्वज्ञदेव जानते हैं । घडा उपजता है, कुशूल विनशता है, मट्टी ध्रुव है, बाल्य अवस्था नष्ट होती है, युवा अवस्था उपजती है । मनुष्यता स्थिर है, ऐसे स्थूल उत्पाद आदिको गमारतक जानते हैं । इसी प्रकार अन्वय, व्यतिरेक, स्वरूप होनेसे आत्मा एकानेकात्मक है । जीवत्व, ज्ञातापन, दृष्टापन, भोक्तापन, आदि स्वभावों करके अन्वय बन रहा है, और ववन विज्ञानों द्वारा व्यावृत्तिके विषयभूत स्वभाव या जायेत, अस्ति, आदि धर्म, गति, इंद्रिय, काय, इन विलक्षण परिणतियोंसे आत्मा व्यतिरेक स्वरूप है । इस प्रकार विपक्ष में बाधक प्रमाणों को दिखलाते हुए अनेक शक्ति प्रचितत्व आदि तुओं की एकानेकात्मन साध्य के साथ व्याप्तिका समर्थन किया जा चुका है । क्योंकि वे " अनेक वाग्विज्ञानविषयःत्र " आदिक तो जन्म आदि छह विकारोंके प्रपंच स्वरूप हैं । अतः इनका व्यापकपना बन जाता । सत्त्वके साथ हो रही अन्यथानुपपत्ति करके प्रसिध्द हो रहे वह सब हेतु जीव के एकात्मकपनको साथ देते हैं। उन सत्व या एकानेकात्मकपन दोनों में से किसी एक का भी अभाव मानने पर " अनेकवाग्विज्ञानविषयत्व " आदि हेतुओंकी उपपत्ति नहीं हो सकेगी और उस अनेक वचनों या अनेक विज्ञानोंकी गोचरता आदिकी सिद्धि नहीं होने पर सत्त्वकी असिद्धि होजानेसे जीव तत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकनेका प्रसंग आवेगा ।
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तत्र जन्मादि विकारप्रपंचस्याविद्योपकहिपतत्वे क्रमाक्रमयोरप्यविद्योपकल्पितत्वप्रस वित्तः ॥ ततश्चार्थ क्रियाप्यविद्या विजृंभितैवेति न सत्त्वं परमार्थतः प्रसिद्धेत् । तत एव संविन्मात्रं तत्त्वमित्ययुक्तं, तस्य ब्रह्माद्यद्वैतवदप्रतीतेरिति प्रपंचेन समर्थितत्वात् । नानैकात्मतया प्रतीतेरंतर्बहिश्च सुनिश्चितासंमवद्बाधकत्वसिद्धेश्च सिद्धौ नानैकात्मको जीवः ।
उन जीव वस्तुओ में जन्म, अस्तित्व, आदि विकारोंके प्रपंचको यदि बौद्ध मिथ्याज्ञान हो रही अविद्यासे कल्पना किया जा रहा मानेंगे, तब तो कप और अक्रमको भी अविद्यासे उपकल्पित होने का प्रसंग आवेगा और उससे फिर अर्थक्रिया भी अविद्याकी ही चेष्टा समझी जावेगी । इस प्रकार परमार्थरूपसे जीवमें सत्वना प्रसिद्ध नहीं हो सकेगा । व्यापक ही यदि मनगढन्त है।