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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
तथा जिस प्रकार एक घट दूरवर्ती, निकटवर्ती, नवीन, पुराना, देवदत्तसे बनाया गया, यज्ञदत्त का स्वामिपना, आदि न्यारे न्यारे वस्तुओं के सम्बन्धसे अनेक सम्बन्धी स्वरूप प्रकट है, उसी प्रकार आर्यक्षेत्र, म्लेच्छस्थान, पंचमकाल, द्रव्यसहितपना, स्त्रीपुत्रसहितपना, पंचेन्द्रियता, श्रेष्ठकुल, यशः, सुगुरु, कुगुरु, कुभोजन आदि अनेक वस्तुओं के सम्बन्धसे यह आत्मा अनेक सम्बन्धी स्वरूप हो रहा है। इस हेतुसे आत्मका सत्त्वपना सधता हुआ एकानेकात्मकपनको साध देता है । एवं जैसे एक घडा अन्य व्यंजक पदार्थोकी अपेक्षासे व्यंग्य हो रहा अनेक स्वरूप उत्कर्ष, अपकर्ष परिणतिको धार रहे रूपादि गुणोंका सम्बन्धी हो जाने से एकानेकात्मक है, उसी प्रकार आत्मा संख्यात, असंख्यात, अनन्ते, उत्कर्ष अपकर्ष आत्मक परिणतिवाले गुणोंका सम्बन्धी होनेसे एकानेकात्मक है तथा यह अनादि अनिधन आत्मा अतीत अनागत, वर्तमान कालोंका सम्बन्धी होनेसे एकानेकात्मक है। अर्थात् - भूतकालकी स्वकीय पर्यायोंसे सम्बन्धी हो चुका है । वर्तमान कालीन पर्यायोंके साथ तदात्मक हो रहा है और भविष्यकालीन निज पर्यायोंके साथ संसर्ग करेगा। बनारसमें गंगा जलको देखनेवाला यों कह देता है, यह जल कानपुर में बह चुका है, यहां बह रहा है, पटना में बहेगा। इस प्रकार एक आत्मामें अनेक कालवर्ती परिणतियोंका संसर्ग होते रहने से एकानेकात्मकरना है । गम्भीर दृष्टिसे विचार किया जाय तो तीनों कालकी परिणतियोंका किसी भी कालके परिणामपर स्थूल या सूक्ष्म संस्कार बना रहता है । " होनहार विरवानके होत चीकने पात" "पूत के लक्षण पालने में ही दीख जाते हैं " ये किंवदन्तियां व्यर्थ नहीं है । " तादृशी जायते बुद्धिर्यादृशी भवितव्यता" यह शिक्षा रहस्यसे रीती नहीं है । बाल्य अवस्थाका पुष्ट, गरिष्ठ भोजन वृद्ध अवस्थातक प्रभाव डालता है । व्यायाम करनेवालेका शरीर अन्ततक दृढ बना रहता है, छोटे हृदयका पुरुष धनवान होजानेपर भी तुच्छताको नहीं छोडता है। जब कि महामना, उदात्त पुरुष कैसे भी अवस्था में अपने बडप्पनको विना प्रयत्न के बनाये रखता है । भविष्यमें आंधी या मेघवृष्टि आनेवाली है इसका परिज्ञान वर्तमान में हो रही पृथिवी, वायु, जल, आदिकी सूक्ष्म परिणतियों अनुसार कोट, पतंग, पशु, पक्षियोंतकको हो जाता है। जहां मनुष्य या तिर्यंचोंका उपद्रव नहीं हुआ, नही होरहा है, नहीं होगा, ऐसे स्थलकी परीक्षा कर झींगुर, बरै, मकडी, मोहार, खटमल, भोंरी, आदि कोट निवासस्थानोंको बनाते हैं । उनमें यहां वहांसे कीट या अन्य पुद्गल लाकर रखते हैं। बच्चोंका शरीर बनाते हैं, इत्यादि अर्थक्रियाओंसे सिद्ध हैं कि असंख्यात अनन्त वर्षातक की पहिली पीछी, पर्यायोंका चाहे किसी भी एक पर्यायपर थोडा प्रभाव उदृङ्कित रहता है । तभी तो अनन्तानुबन्धी कषायकी वासना अनन्तभवोंतक चली जाती है। मोक्ष होने के पहिले अर्ध पुद्गलपरिवर्तनकाल आदिमें हुये सम्यग्दर्शन परिणामकी मध्यके अनन्त भवोंमें कुछ अनिर्वचनीय वासना छाई रहती है । शब्दको उत्पादक स्थानसे सैकडों हजारों कोसतक लहरें उठ बैठती हैं ।हंगना, मूतना, भोजन करना, शयन करना इन क्रियाओंमें कितनी ही आगे पीछे तक वैसो वैसी परिणति होती रहती हैं । चेतन और अचेतन पदार्थों की वर्तमानकालीन परिणतिको देखकर वैद्य या ज्योतिषीय विद्वान् भूत, भविष्यकी परिणतियोंका परिज्ञान करलेते हैं।