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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः हो सकते हैं, खरविषाणसे कोई विलक्षण नहीं है । अतः परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिस्वरूप एक स्वभावसे तदतिरिक्त अनन्तानन्त स्वभावोंका पिण्डभूत भाव यहां उस अभावसे विलक्षण समझा जाय। नानास्वभावत्वं जीवस्य कुत इत्याह । यहां कोई जिज्ञासु पूछता है कि एक जीवके नाना स्वभावोंसे सहितपना भला कसे सिद्ध हो जाता है ? ऐसी अभिलाषा प्रवर्तनेपर श्री विद्यानंद आचार्य समाधानकारक वचनको कहते हैं। जन्मास्तित्वं परिणति (निवृत्तिंच) क्रमावृद्धिमपक्षयं । विनाशं च प्रपद्यते विकारं षड्विधं हिते ॥७॥ जगत् में निवास कर रहें संपूर्ण जीव नियमसे छह प्रकारके विकारोंको प्राप्त हो रहे हैं । अतः वे अनेक स्वमाववाले हैं। एक एक जोव नाना स्वमात्र आत्मक है। कारण कि वे जीव जन्मको प्राप्त करते हैं १। अस्तित्वको प्राप्ति कर रहे हैं २। परिणामको धार रहे हैं ३ । वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं ४ । क्रमसे एकदेश निवृत्तिस्वरूप अपक्षयको प्राप्त होरहे हैं ५ । तथा विनाशको प्राप्त हो जाते हैं ६ । इस प्रकार प्रतिक्षण हो रहे अनन्ते छह प्रकार विकारोंद्वारा एक एक भाव नाना स्वभाववान् प्रसिद्ध हैं । अर्थात-जैसे कोई बालक प्रथम उपजता है फिर कुछ दिनतक आत्मलाम करता हुआ अपना अस्तित्व स्थिर रखता है, अनेक अवस्थाओंको प्राप्त करता है, हड्डी, रक्त, शरीर, बुद्धिबल आदिको बढाता जाता है, पुनः क्रमक्रमसे हीन होता जाता है, अन्तमें वृद्ध अवस्था बीत जानेपर विनाशको प्राप्त हो जाता है। यह क्रमसे होनेवाले छह विकारोंका दृष्टांत है । किन्तु सूक्ष्म परिणतियां या अनेक गुणोंके नाना अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा युगपत् भी अनेक छह विकार हो रहे है। उत्पाद व्यय, ध्रौव्य, स्वरूप पर्यायोंके साथ तदात्मक हो रहे द्रव्यमय वस्तुमें ये छऊ विकार अपेक्षाओं द्वारा सुघटित हो जाते हैं । सर्वो हि भावो जन्म प्रपद्यते निमित्तद्वयवशादात्मलाममापद्यमानस्य जायत इत्यस्य विषयत्वात् । यथा सुवर्णकटकादित्वेन । अस्तित्वं न प्रतिपद्यते स्वनिमित्तवशादबस्थामबिभ्रतो र्थस्यास्तीति प्रत्ययाभिधानगोचरत्वात् निर्वृत्ति च प्रपद्यते सत एवावस्थांतरावाप्तिदर्शनात् परि-जमते इत्यस्य विषयत्वात् । वृद्धि च प्रतिपद्यते अनिवृतपूर्वस्वभावस्य भावांतरेणाधिक्यं लभमानस्य दद्धते इत्यस्य विषयत्वात् । अपक्षयं च प्रपद्यते क्रमेण पूर्वभावकदेशविनिवृत्ति प्राप्नवतो वस्तुनोपक्षीयत इत्यस्य विषयत्वात् । विनाशं च प्रतिपद्यते, तत्पर्यायसामान्यनिवृत्ति समासादयतीर्थस्य नश्यतीत्यस्य गोचरत्वात् ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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