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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
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चराचर जगत्के सम्पूर्ण सद्भूत पदार्थ जन्मको प्राप्त करते है, क्योंकि अन्तरंग, बहिरंग, दोनों निमित्त कारणोंके वशसे आत्मलाभको प्राप्त हो रहा पदार्थ " उपज रहा है " इस ज्ञानका विषय हो जाता है, जैसे कि सोना, कडे, हंपली, आदि स्वरूप करके उपजता है। और सभी पदार्थ अपने अस्तित्वको प्राप्त कर रहे समझे जाते हैं। क्योंकि अपने अपने आत्मलाभ कारण हो रहे निमित्तोंके वशसे अवस्थाको धार रहा अर्थ है", इस ज्ञान और शब्दका विषय हो रहा है। तथा चाहे के ई पदार्थ विपरिणतिको धारण कर रहा है। क्योंकि सत् पदार्थको ही न्यारी न्यारी अवस्थाओं की प्राप्ति देखी जा रहीं होने से "परिणमन करता है " इस ज्ञानका विषयपना प्राप्त है । एवं सभी पदार्थ वृद्धिको ही प्राप्त हो रहे है । क्योंकि पूर्व में प्राप्त हो चुके स्वभावों को नहीं छोड़कर अन्य भावों करके त्रिकका लाभ कर रहे पदार्थ को "बढ रहा "यों इस ज्ञानका विषयपना नियत है तथा सभी पदार्थ पांचवें अपक्षय विकार को भी प्राप्त होते हैं। क्योंकि पूर्व में उपार्जित किये जा चुके भावों की काका एक देश विनिवृत्तिको प्राप्त हो रही वस्तुको " कुछ कुछ क्षोग हो रही है" इस ज्ञान शब्दका विषयपना निर्णीत है । ज्ञेय पदार्थका ज्ञानके साथ विषयविषविभाव सम्बन्ध है और वाच्यार्थ का शब्दके साथ वाच्यवाचक सम्बन्ध ( नाता ) है । तथा सभी भाव विनाशको प्राप्त हो रहे जाने जाते हैं। क्योंकि उस पर्यायकी सामान्यरूप से पूर्णतया निवृत्तिको प्राप्त कर रहे अर्थको 'नष्ट हो रहा है" इस ज्ञानका विषयपना निश्चित है। यहां ग्रंथकारने वस्तुके स्थूल सूक्ष्म पर्याय स्वरूप छह विकारोंको साधनेवाली अपेक्षाओं को दिखला दिया है । साथनें जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्द्धते, अपक्षीयते, विनश्यति, इन वाचक पदोंकी योजना के लिये अथवा जायते आदिका ज्ञान करने के लिये शिष्योपयोगिनी शिक्षा दे दी है। उक्त ढंगसे न्यून या अधिक व्यवहार करनेवाला पुरुष पथभ्रष्ट हो जायगा । यों विवक्षित विधिके अनुसार सम्पूर्ण भावोंके यानी द्रव्यपययात्मक वस्तुके क्रम अक्रम रूप से हो रहे छह विकारोंको समझ लेना चाहिये ।
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तथा जीवा अपि भावाः संतः षड्विधं विकारं प्रपद्यते अभावविलक्षणत्वादिः येके, तेषां यद्यवस्तुविलक्षणत्वं सत्त्वं धर्मस्तदा न सम्यगिदं साधनं प्रतिक्षणपरिणामेनकेन व्यभिचारात् अभावविलक्षणत्वं वस्तुत्वं तदा युक्तं ततो जीवस्य षड्विकारप्राप्तिसाधनं वस्तुत्वस्य तदविनाभावसिद्धेः । अवासत्त्वधर्मविलक्षणत्वं सत्त्वंधर्मस्तदा न सम्यगिदं साधनं प्रतिक्षणपरिणामंकेन ऋजुसूत्रविषयेण व्यवहारनयगोचरेण द्रव्येण च व्यभिचारात् तस्य षड्विकाराभावेपि सत्त्वधर्माश्रयत्वेनाभावविलक्षणत्व सिद्धेरन्यया सिद्धांतविरोधात् ।
तिसी प्रकार जीव भी भाव हो रहे सन् स्वरूप पदार्थ हैं। अतः छह प्रकारके विका रों को प्राप्त हो रहे हैं । अर्थात् सत् स्वरूपभाव होनेसे जं वोंके छह विकारों की प्राप्ति बन रही है। कोई एक उच्च कोटीके विद्वान् यहाँ यों कह रहे हैं कि तुच्छस्वरूप अभावोंसे विलक्षण होनेके कारण जीव भाव छह विकारों को धारते हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि उन एक अनुपम विद्वान् अकलंक महाराजके यहाँ यदि अभाव यानी अवस्तुसे विलक्षणपना ही सत्त्व नामक