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तत्त्वार्थश्लोकगतिक ..
ततः संसारिणो जीवाः स्वतत्त्वादिभिरीरिताः । नानकात्मतया सतो नान्यथार्थ क्रिया क्षतेः ॥६॥
जिस कारणसे कि जीवके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, स्वतत्त्व, योनि, जन्म, शरीरधारण, नरकावास, मध्यलोक आवास, देव अवस्था, आदि स्वाभाविक और औराधिक धर्मों का चौथ अध्यायतक निरूपण किया है, तिस कारण वे औरशमिक आदि पांच स्वतत्त्व, विग्रहगति आदि परिणामोंकरके निरूपे जा चुके जीव नाना धर्मोके एक तदात्मकपने करके सद्रूप हो रहे हैं। अन्य प्रकारोंसे जीव पदार्थ सद्भुत नहीं है । क्योंकि केवल एकरूप या स्वतंत्र अनेकरूप अथवा क्षणिक स्वरूप, नित्य स्वरूप आदि ढंगोंसे जीवका सत्व माननेपर अर्थक्रिग होने की क्षति हो जाती है। नाना धर्म आत्मक पदार्थको स्वीकार किये विना छोटीसे छोटी अर्थ क्रिया भी नहीं हो पाती है। पूर्व स्वभावों का त्याग, उत्तर स्वभावों का ग्रहण और स्थूलपरिणतिको स्थिरत स्वरूप परिणाम हुये विना जगत्का अत्यल्प कार्य भी नहीं हो सकता है।
___ यस्माद्वितीयाध्याये स्वतत्वलक्षणादिभिः स्वभावः संसारिणो जीवाः प्रत्येकं निश्चितास्तृतीयचतुर्थाध्याययोश्चाधारादिविशेषेर्नानाविधरध्यवसितास्ततो नानकात्मतया व्यवस्थिताः । न पुन नात्मान एवैकात्मान एव वा सर्वार्थक्रियाविरहातेषामसत्त्वप्रसंगात् । संश्च सर्वसंसारी जीव इति निश्चितप्रायं, अभावविलक्षणत्वं हि सत्त्वं तच्च नास्तीत्येकस्वभावादमावाद्वलक्षण्यं ।
जिस कारण कि उमास्वामी महाराजने दूसरे अध्यायमे जीवके निज तत्त्व, जीवके लक्षण, आदिक स्वभावोंकरके सम्पूर्ण संसारी जीव एक एक होकर निश्चित कर दिये हैं और तीसरे, चौथे, अध्यायों में आधार स्थान, आयुः, लेश्या, प्रवीचार, आदि नाना प्रकार विशेषताओंकरके जीवोंका निर्णय करा दिया है, तिस कारण ये जोन नाना एकात्मक स्वभावकरके व्यवस्थित हो रहे हैं। किन्तु फिर न्यारे न्यारे स्वतंत्र नाना धर्मस्वरूप ही अथवा एक धर्म स्वरूप ही जीव नहीं हैं । क्योंकि नानापनका एकान्त या एकपनका एकान्त माननेपर सम्पूर्ण अर्थक्रियाओंका अभाव हो जानेसे खरविषाणवत् उन जीवोंके असत् हो ज नेका प्रसंग होगा। अर्थक्रियाको करना ही समत वस्तुका निर्दोष लक्षण है । अन्य लक्षणोंमें अनेक दोष आते हैं। संसारी जीव सद्भूत पदार्थ हो रहे है । इस सिद्धांतका हम पूर्व प्रकरणों में अनेक बार निर्णय करा चुके हैं। तुच्छ अभाव पदार्थ भले ही असत् रहो किन्तु अभावोंसे विलक्षणपना ही सत्पना है और वह सत्त्व ही " नहीं है" इस प्रकार सर्वथा एक स्वभाववाले अभावसे विलक्षणपना है। अतः ऐसे अभाव विलक्षणत्व हेतुसे एक एक जीवका अनेक धर्मात्मकपना सिद्ध हो जाता है। अर्थात् अमाव यदि तुच्छ असा है तो ऐसे अभावका विलक्ष गपना वस्तुमें सत्र नहीं सकता है गौ आदि भावोंसे अश्व आदि भाव विलक्षग हुमा करते हैं । “विसदृशानिलक्षणानि यस्य स विलक्षणः" परस्परमें प्रतियोगिता रखते हुए दो आदि भाव पदार्थ विलक्षण