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तस्वायचिन्तामणः
चार्वाक ( साइण्टफि ) कहते हैं कि पृथिवी आदि भतोंका एक विशेष परिणाम सूक्ष्म है, जो कि बहिरंग इंद्रियोंके दष्टिगोचर नहीं है । स्थल परिणामकी भले ही बाधा या अन्वय व्यतिरेक-व्यभिचार होय, किन्तु व्यभिचारसे वजित हो रहा नाना प्रकारका सूक्ष्मभूत ही उनका न्यारा कारण है। यों कहनेपर तो आचार्य इष्टापत्ति करते हैं कि वही सूक्ष्मभूत तो हम आहेतोंके यहां कम पदार्थ सिद्ध है, उसका सूक्ष्मभूत विशेष यह केवल नामान्तर करना तो निराला है । अर्थ में कोई भेद नहीं है । हां कर्मों के अतिरिक्त चारों ओर देखे जा रहे सूक्ष्म भून विशेषको व्यभिचारसे रहितपना असम्भव है । यो ग्रन्थकर्ताने कर्मोंकी विचित्रता अनुसार वा रहीं जीवोंकी न्यारी न्यारी पर्यायोंकी अनेक प्रकार उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य, स्थितियोंको सिद्ध कर दिया है।
अथ किमेते संसारिणो जीवाः कर्मवैचित्र्यात् स्थितिवचित्र्यमनुमवंतो नानात्मानः प्रत्ये. कायतकात्नानः इति ? यहि नानात्मानस्ताऽनुसंधानाय भावः स्यादेकसंतानेपि नानासंतानवत् । अयंकात्मानस्तदानुभवस्मरणादि सक्रमानुपत्तिः पौर्वापर्यायोगादिति वदंतं प्रत्याह ।
अब यहां अनेकान्तसिद्धांतको पुष्ट करने के लिये प्रकरणका प्रारम्भ किया जाता है । प्रथम ही किसीका आक्षा है कि ये संमारी जीव कर्मों को विचित्रतासे हो रहे स्थितियों के विचित्र पनको अनुभव रहे क्या न्यारे, न्यारे अनेक धर्मस्वरूप है ? अथवा प्रत्येक धर्म के अधीन हो रहे एक एक धर्म स्वरूप है, बताओ? प्रथमपक्ष अनुसार यदि जीव पदार्थ नाना धर्मस्वरूप है, यानी धान्यराशिके समान स्वतंत्र हो रहे अनेक विज्ञानपरमाणु या परस्पर किसीकी अपेक्षा नहीं रखते हुये अनेक धर्म ही जं व पदार्थ हैं, तब तो अनुसंधान, प्रत्यभिज्ञान, देन, लेन, दान दानफल, हिंसा हिंसाफल, आदि व्यवहारोंका अभाव हो जावेगा। एक संतान होने पर भी नाना सन्तानोंके समान विमर्षण आदिक नहीं हो सकेंगे। भावार्थ-अनेक विज्ञान परमाणु स्वतंत्र पडे हुए हैं । द्रव्यरूासे अन्वित होकर ओतपोत बने रहना ऐमी सन्तानको हम बौद्ध वस्तुभूत नहीं मानते हैं। अतः जैसे देवदत्तकी धारणा अनुसार जिनदत स्मरण नहीं कर सकता है, चन्द्रदत्त उसका अनुसंधान नहीं कर पाता है, इसी प्रकार एक घडी पूर्व देखे जा चुके पदार्थका स्वयं देवदत्त स्मरण या प्रत्यभिज्ञान नहीं कर सकेगा। बाल्य अवस्था या युवा अवस्थाके अनुभवोंका वृद्ध अवस्थामें स्मरण नहीं हो सकेगा। ऋण देना लेना, ब्रह्मचर्य, पिता, पुत्रपन आदि व्यवहार अलीक हो ज.वेंगे। अब यदि द्वितोय पक्ष के अनुसार आप जैन जीव आदि पदाऑको एक धर्मस्वरूप ही स्वीकार करेंगे, तब तो अनुभव स्मरण आदिका संक्रमण होना नहीं बन सकेगा। क्योंकि पूर्व अपरपने का अयोग है । अर्थात्-एक धर्मस्वरूप पदार्थ दूसरे क्षण में नष्ट हो गया तो पहिला पिछलापन, नहीं घटित होनेसे क्षणिक एक धर्मस्वरूप जीवके अनुभव अनुसार स्मृति होना या प्रत्यभिज्ञान होना अथवा अनेक विचारोंका परिवर्तन होते हुए संक्रमण होना इत्यादिक परिणतियां नहीं बन सकती हैं। इस प्रकार एकान्त पक्षका परिग्रह कर बोल रहे वादीके प्रति ग्रंथकार अब समाधानको स्पष्ट कहते हैं।