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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
है । अर्थात् -- यहां तक इस अध्यायके छव्वीस सूत्रों में चारों देवनिकायों का समीचीन युक्तियों और सर्वज्ञ धारा प्राप्त आगमके अनुसार कथन किया जा चुका है ।
इति तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकालंकारे चतुर्थाध्यायस्य प्रथममान्हिकम् । यहांतक तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार नामक महाग्रंथ में चौथे अध्यायका पहिला आन्हिक ( प्रकरण समूह ) परिसमाप्त हुआ ।
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प्राग्जन्माजित कर्म नित्यगतिकज्योतिष्कनिघ्नं क्षपाघस्त्रादिव्यवहारकालमचला स्थैर्य्यञ्च मुक्त्यै विदन् । सूर्येन्द्वोरुप रागिताग्रहकृतानेन्दु क्षितिच्छायया धर्म्यध्यानरतो भुवं समतलां पस्येदगोलां सुधीः ॥ १॥
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अथ द्वितीयमान्हिकम्
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जीवके औदयिक भावोंमे तिर्यक योनिको गतिको औदयिक भावों में गिनाया है । फिर स्थिति के प्रकरणमें “ तिर्यग्योनिजानां च इस सूत्र द्वारा तिर्यंचयोनिवाले जीवोंकी स्थिती को समझाया है। वहां हम यह नहीं समझे कि तिर्यग्योनि जीव कौनसे हैं ? इस प्रकार सन्देह होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको समाधानार्थं प्रतिपादन करते हैं ।
औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥ २७॥
औपपादिक अर्थात् - उपपाद जन्मवाले देव और नारकी जीव तथा मनुष्य इनसे शेष बच रहे सम्पूर्ण संसारी जीव तिर्यग्योनि यानी तिथंच है। तीन गतिओं के जीव असंख्यातासंख्यात हैं । किन्तु तिर्यंच जीव अनन्तानन्त है ।
औपपादिकाश्च मनुष्याश्चौपपादिकमनुष्या इत्यत्र द्वंद्वेर्भ्याहतत्वादोपपादिकशद्वस्य पूर्वनिपातः । मनुष्यशद्वस्याल्पाक्षरत्वेपि तस्मादुत्तरत्र प्रयोगः, अर्ध्याहतत्वस्यात्पाक्षरापवादत्वात् । तेभ्योन्ये शेषाः संसारिणः तिर्यग्योनयः प्रत्येयाः, तिर्यग्नामकर्मोदयसद्भावात् । न पुनः सिद्धाः संसारिप्रकरणे तदप्रसंगात् ।
औपपादिक और मनुष्य यों इतरेतर द्वन्द्व कर ' औपपादिकमनुष्याः ' यह पद बनाना चाहिये । इस पदमें द्वन्द्व समास करनेपर अभ्यर्हित ( पूज्य ) होने से ' अव्यवहितं पूर्वं ' इस सूत्र अनुसार बहुत अच्वाले भी औपपादिक शद्वका पूर्व में निपात हो जाता है। मनुष्य शद्वका अल्प अक्षरवाला या अत्यल्प अच्वाला होनेपर भी उस औपपादिकसे पीछे प्रयोग किया है ।