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________________ तत्त्वार्थीचन्तामणिः जिस कारणसे कि विजय आदिकोंमें तिस प्रकार दो मनुष्य भवोंकी अपेक्षा द्विचरम देव अच्छे कहे गये हैं, तिस कारण अन्य वैमानिकोंमें यहां मनुष्य भवों में नियम करानेवाला कोई नहीं है । अर्थात्-सौधर्म आदिके देव सौ भव या अनन्त भव लेकर मोक्ष जायेंगे ऐसा कोई नियम नहीं है । अवेयकों तकमें उपजनेवाले अनन्तवार अवेयक या मनुष्य भवोंमें संसरण करते रहते हैं । अनेक जीव तो मुक्तिको कथमपि प्राप्त नहीं कर सकेंगे । अतः लौकान्तिक आदिकोंका एक चरमपना और विजयादिकोंका दो चरमपना प्रसिद्ध है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंका त्रिचरमपना यानी उत्कृष्टतया चौथे भवमें मोक्ष जाना निर्णीत है । तीर्थंकर प्रकृतिवाला जीव भी उत्कृष्ट तया द्विचरम है। तीसरे जन्ममें अवश्य मोक्ष पावेगा । अन्य जीवोंके लिये कोई मुक्ति प्राप्त करनेके लिये भवोंका नियम नहीं बखाना गया है । भले प्रकार सल्लेखना करनेवाला जीव सात, आठ, जन्मोंमें मुक्तिको प्राप्त कर लेता है, ऐसा चरणानुयोगका सिद्धांत है । " जेसि होइ जहण्णा चउविहाराहणा दु भवियाणं । सत्तठूभवे गंतुं ते विय पावन्ति णिव्वाणं" इनके अतिरिक्त मुक्ति प्राप्त करने के लिये भवोंका नियम नहीं किया गया है। भले ही न्यारे न्यारे जन्मोंकी अपेक्षा यह जीव महाव्रतोंको अधिकसे अधिक बत्तीस वार धारण कर सकता है । एक भवमें अधिकसे अधिक दो बार लेता हुआ उपशम श्रेणीको चार वार ले सकता है। किन्तु इसमें तो कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल भी पूरा होकर अनन्ते जन्म हो सकते हैं। अनन्त कल्पकाल भी समाजाय । अतः यह कोई चरमभवों को गणनाका नियम नहीं समझा जाता है। यतो लोकांतिकानां सर्वार्थसिद्धस्य शक्रस्य च तदग्रमहिष्या लोकपालादीनामेकचरमत्वमुक्तं तथा विजयादिदेवानां द्विचरमत्वं, ततोन्यत्र सौधर्मादिषु नियमो नास्तीति गम्यते । जिस कारणसे कि लोकान्तिक देवोंका और सर्वार्थसिद्धिवाले देवोंका तथा सौधर्म इंद्रका एवं उसकी अग्रमहिषी हो रहीं इन्द्राणीका तथैव लोकपाल आदिकोंका एकचरमपना सिद्धांत ग्रन्थोंमें कहा गया है, तिस प्रकार विजय, आदिक देवोंका द्विचरमपना निर्णीत है। उनके सिवाय सौधर्म आदिकोंके अन्य देवोंमें कोई द्विचरमपन आदिका कोई नियम नहीं है। यों अर्थापत्त्या जान लिया जाता है। लोकपाल आदि यहां आदिादसे दक्षिण दिशाके इन्द्रोंका ग्रहण कर लेना, त्रिलोकसारमें ' सोहम्मो वरदेवी सलोगपाला य दक्षिणमरिंदा। लोगंतिय सवठा तदो चदा णिव्वुदि जन्ति " यों कहा है। इत्येकादशभिः सूत्रैवैमानिकनिरूपणं । युक्त्यागमवशादात्तं तनिकायचतुष्टयम् ॥ २॥ - इस प्रकार 'वैमानिकाः' इस सूत्रसे प्रारम्भ कर 'विजयादिषु द्विचरमाः' यहांतक ग्यारह सूत्रों करके श्री उमास्वामी महाराजने वैमानिक देवोंका निरूपण किया है । युक्ति और आगमके वशसे उन देवों की चारों निकायों को उक्त चौथे अध्याय द्वारा ग्रहण कर लिया जा चुका
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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