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________________ तत्त्वार्थश्लोकवातिके %3 कथं पुनर्विजयादीनां द्विचरमत्वं ? मनुष्यभवापेक्षाया तयैव व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडकेऽ भिधानात् । देवभवापेक्षायामपि त्रिचरमत्वप्रसंगात् । ____विजयादिक अहमिन्द्रोंके द्विचामपना किस प्रकार व्यवस्थित है ? इसका समाधान यह है कि द मनुष्य भवोंकी अपेक्षा करते सन्ते द्विवरमपना। यानी विजयादिकसे च्युत होकर मनुष्योमें उपज कर संयम लेते हुये, पुनः विजयादिक में उपपाद कर पुनः मनुष्य जन्म लेकर सिद्ध हो जाते हैं। तिस ही प्रकार व्याख्याप्रज्ञान्तिदण्डक नामक महा अधिकार में कहा गया है। यदि मध्यवर्ती देवभवकी अपेक्षा भी की जायगी तब तो त्रिचरमपनका प्रसंग होगा। दो मनुष्यभव और एक देवभव यों तीन भवतारी ये हो जायंगे । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकमें अन्तर प्रकरणके अनुसार आये हये, विरोधका भी निवारण कर दिया है। अन्य कल्पमें उत्पत्ति हो जानेकी अपेक्षा नहीं रखकर किये गये, गौतम महाराजके प्रश्नपर भगवान का उतर यह है, जो कि सूत्रमें कहा गया है। __मनुष्यभवस्य पुनरेकस्य मुख्यचरमत्वं येनैव निर्वागप्राप्तेः । अपरस्य तु चरमप्रत्त्यासत्तेरुपचरितं चरमत्वं सजातीयस्य व्यवधायकस्याभावात् तस्य तत्प्रत्यासत्तिसिद्धः । द्वौ चरमौ मनु. ष्यभवी येषां ते द्विचरमाः देवाः विजयादिषु प्रतिपत्तव्याः । यदि कोई यों कटाक्ष करे कि कितने ही थोडे या बहुत पदार्थ क्यों न हों उनमें चरम एक ही हो सकता है । अनन्तानन्त पदार्थमें भी चरम एक ही होगा। फिर यहां दो को चरमपना कैसे कहा ? ग्रन्थकार इसका समाधान यों कर देते हैं कि भाई तुम्हारा कहना ठीक है। एक ही अन्तिम मनुष्य भवको मुख्य रूपसे चरमपना है, जिस ही करके निर्वाग की प्राप्ति होती है । किंतु उसके निकटवर्ती दूपरे या तोसरे न्यारे भवको चरमाना तो चरमके निकटवर्ती होने के कारण उपचरित है । कोई दूसरा समान जातिवाला पदार्थ व्यवधान करनेवाला नहीं है । अतः उस दूसरे या तीसरे भवको उस मुख्य चरमको निकटवत्तिता सिद्ध है। जिनके दो मनुष्य भव अन्तिम लेने शेष हैं, वे देव द्विवरम हो रहे विजय आदिक में निवास कर रहे समझ लेने चाहिये । अथान्यत्र सौधर्मादिषु कियच्चरमा देवा इत्यावेदयितुमाह । अब महाराज यह बताओ कि अन्य सौधर्म, आदिक विमानों में निवास कर रहे देव भला कितने चरम भवोंको ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त करेंगे? इस प्रश्नके समाधानका प्रज्ञापन करनेके लिये ग्रन्थकार उत्तरवात्तिकको कहते हैं। तथा द्विचरमाः प्रोक्ता विजयादिषु यतोऽनराः। वत.न्यत्र नियामोस्ति न मनुष्यभवे बह ॥ १ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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