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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६४३ विजयादिषु द्विरमाः ॥ २६॥ विजय आदि विमानों में दो चरम वाले देव निवास करते हैं । अर्थात् विजय, वैजयन्त, अपराजित और नौ अनुदिश विमानोंके देव अधिकपनेसे अन्तिम दो मनुष्य भवोंको प्राप्त कर मोक्षको चले जाते हैं। यहां विजय और आदि शद्वके साथ बहुब्रीहि समास तथा तत्पुरुष समास कर देनेसे वैजयन्त, अपराजित, और अनुदिशोंका इष्टग्रहण सिद्ध होजाता है । ये तेरह विमानों के निवासी पल्य के असंख्यातवें भाग स्वरूप असंख्याते देव आयुष्य पूर्ण होते सन्ते सम्यक्त्वसे नहीं छूटते हुये मनुष्योंमें उपज कर पुनः संयमको आराधना करते हुये फिर विजयादिकों में उपज कर वहां से च्युत होते हुये यहां कर्म भूमिमें मनुष्य भवको प्राप्त कर सिद्ध होजाते हैं। यों दो मनुष्य भवोंकी अपेक्षा द्विचरमपना होजाता है ॥ आदिशद्वः प्रकारार्थः । कः प्रकारः ? सम्यग्दृष्टित्वे निग्रंथत्वे च सत्युपपादः । स च विजय स्येव वैजयंतजयन्तापराजितानामनुदिशानामप्यस्तीति तत्रादिशद्वेन गृह्यंते । सर्वार्थद्धस्य ग्रहण प्रसंग इति चेन्न तस्यान्वर्थसंज्ञा करणात् पृथगुपादानाच्च लौकान्तिकंवदेकच रमत्वसिद्धेः । यहां सूत्र में पडे हुये आदि शद्वका अर्थ प्रकार है । वह प्रकार क्या है ? इसका उत्तर यह है कि सम्य दृष्टि होते हुये और निर्ग्रन्थपना होते हुये जो देवोंमें उपपाद जन्म लेना है । हां, वह सम्यग्दृष्टि और निर्ग्रन्थ मनुष्यों का उपपाद विजय के समान वैजयन्त, जयन्त अपराजित, और अनुदिश विमानवासियों के भी विद्यमान है। इस कारण वहां आदि शद्व करके बारह विमानोंका ग्रहण कर लिया जाता है । अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो रहे महाव्रती का ही मरकर जहां जन्म लेने का नियम है, वे स्थान विजय आदिक कहे जाते है । जन्मके आदिमें सम्यग्दृष्टि होते हुये अहमिन्द्रपनका अकलंक नियम भी इससे प्रतिकूल नहीं पडता है । यदि यहां कोई यों कहे कि सम्यग्दृष्टि महाव्रती पुरुषों का ही उपपाद जन्म होना तो सर्वार्थसिद्धि विमानों में भी है । अतः आदि पदसे यहां मानुषियोंसे तिने या उत्कृष्टतया सात गुने सर्वार्थसिद्धि वाले संख्यात देवोंके ग्रहण हो जाने का प्रसंग होगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उस सर्वार्थसिद्धि की ठीक ठीक वाचक शद्ब के अनुसार अर्थ घटित होजानेवाली सज्ञा की गयी हैं । भावार्थ- सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि प्राप्त करनेवाले ये देव हैं । अगले भव में ही मोक्ष की सिद्धि करलेवेंगे । दूसरी बात यह है कि सौधर्मेशान आदि सूत्र में "सर्वार्थसिद्धि " का पृथग् रूपसे उपादान किया गया है । अतः लौकान्तिक देवोंके समान एक चरमशरीरपना सिद्ध है । अतः यह सूत्र सम्यग्दृष्टि महाव्रती ही मनुष्योंके उपपाद स्थान हो रहे विजय आदि तेरह विमानों में रहने वाले अहमिन्द्रोंके लिये चरितार्थ है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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