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________________ ६४२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके द्वीप अथवा अन्य अकृत्रिम चैत्यालयोंकी वन्दना आदिमें इनको जाने आने की उत्सुकता नहीं है। देवगति नाम कर्मके भेद प्रभेद होरहे लौकान्तिक देव नामक प्रकृति विशेष के उदयसे उक्त ढंग के ये देव उपज जाते हैं । नामकर्म की उत्तरोत्तर प्रकृतियां असंख्याती हैं । यह जीव पहिले शुभ, अशुभ कर्मोंके अनुसार विभिन्न पर्यांयों में उपज जाता है । पश्चात् स्वकीय पुरुषार्थं द्वारा विलक्षण कार्यों को साधलेता है । सिद्धान्त ग्रन्थों में संसारी जोंवों की अवस्थाओं का कर्मजनित और पुरुषार्थजनित न्यारा न्यारा स्वरूप दरसादिया गया है । तेन्वर्थसंज्ञतां प्राप्ता भेदाः सारस्वतादयः । तेनैकचर मा स्तद्वच्छक, द्यायोपलक्षिताः ॥ १ ॥ लौकान्तिक देवगणोंके वे सारस्वत आदिक भेद अन्वर्थसंज्ञापनेको प्राप्त हो रहे हैं । तिस कारण ये लौकान्तिक देव एकचरम हैं। यानी एक मनुष्य भव लेकर चरमशरीर अवस्था से निर्वाण प्राप्त कर लेंगे । अतः शद्वमेंसे निकले हुये अर्थके अनुसार इसका नाम यथार्थ है । उमास्वामी महाराजने इन दो न्यारे सूत्रों करके एक भवतारी लौकान्तिक देवोंका स्वतंत्र निरू पण किया है । यह उपलक्षण है । जैसे "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् " यहां काक पद दहीके उपघातकों का उपलक्षण है। छह दक्षिण दिशा के इन्द्र, सौधर्म इन्द्रको इन्द्राणी, सौधर्मं स्वर्गके लोकपाल, सर्वार्थसिद्धिके देव ये भी एक भवतारी हैं । अतः उन लौकान्तिकों के समान इस सूत्र द्वारा सौधर्म इन्द्र आदि सभी एक भवतारी जीवों का उपलक्षण कर दिया गया समझ लेना । येथे कचरमा लौकांतिकाः सर्वेन्वर्थसंज्ञां प्राप्ताः सूत्रिताः तथा शक्रादयश्च तेषामुपलक्षणत्वात् । जिस प्रकार कि एक चरम होरहे सभी लोकन्तिक देव परले जन्म में संसार का अन्त करने वाले होते हुये सत्य अर्थके अनुकूल होरहीं संज्ञाको प्राप्त हो रहे सूत्र द्वारा उमास्वामी महाराज ने कह दिये हैं, उसी प्रकार सौधर्म इन्द्र आदिक भी एक चरम शरीर को प्राप्त कर दूसरे जन्म में संसार का अन्त कर देने वाले सूचित कर दिये गये हैं। क्योंकि उन सारस्वत आदिकों का एक भक्तारी जीवों में उपलक्षणपना है। अतः "ब्राम्हणवशिष्ट " न्याय से इन एक भवतारी जीवोंका न्यारे सूत्रों द्वारा निरूपण करना समुचित है । क्व पुनद्वचरमा इत्याह । जब कि ये लौकान्तिक या शक्र आदिक एक चरम हैं, तो फिर महाराज यह बताओ कि द्विचरम यानी दो भवतारी जीव कौनसे हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको कहते हैं ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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