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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः क्योंकि — अल्पाच् तरं पूर्वं ' इस सूत्रका अपवाद करनेवाला ' अभ्यहितं च ' है । अतः अभ्यहितपना अल्पाक्षरपने को बाध लेता है । औपपादिकोंमें देव आ जाते हैं। और देव स्थिति, प्रभाव, आदि करके पूज्य कहे जा चुके हैं। उन औपपादिक और मनुष्योंसे अतिरिक्त शेष संसारी जीव तिर्यंच समझ लेने चाहिये। क्योंकि उनके तिर्यग्गति नामक नाम कर्मका उदय विद्यमान रहता है । औपपादिक और मनुष्योंसे शेष रहे सिद्ध फिर नहीं ग्रहण किये जाते हैं। क्योंकि संसारी जीवोंके प्रकरणमें उन शुद्ध परमात्माओंका प्रसंग नहीं है । सिद्धोंमें गति कर्मका उदय नहीं पाया जाता है। कस्मात्पुनहि तेभिधीयते ? तिर्यग्प्रकरणे तेषामभिधानार्हत्वात् इत्याशंकमानं प्रत्याह । कोई शिष्य आशंका कर रहा है कि किस कारणसे फिर वे तिथंच जीव यहां विना प्रकरण कहे जा रहे हैं । जब कि दूसरे अध्यायमें तिर्यंचोंके प्रकरणमें उन तिर्यग्योनि जीवोंका कथन करना योग्य प्रतीत होता है ? इस प्रकार आशंका कर रहे शिष्यके प्रति ग्रन्थकार समाधान वचनको कहते हैं। सर्वलोकाश्रयाः सिद्धास्तियंचोप्यर्थतोंगिनः । सन्त्योपपादिकेभ्यस्ते मनुष्येभ्योपि चापरे ॥१॥ इति संक्षेपतस्तिर्यग्योनिजानां विनिश्चयः । कृतोत्र सूत्रकारेण लक्षणावासभेदतः ॥२॥ आधारभूत संपूर्ण लोकके आश्रित हो रहे तिर्यच प्राणी भी वास्तविक रूपसे प्रसिद्ध हो रहे हैं । तया वे औपपादिक जीवोंसे और मनुष्य जीवोंसे भी न्यारे भिन्न प्रकार के विद्यमान हैं । इस प्रकार सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजने इस सूत्रमें लक्षण और निवास स्थान की विशेषता अनुसार संक्षेपसे तिर्यंच जीवोंका विशेष निश्चय करा दिया है। भावार्थ-तिर्यंच जीव तीनों लोकोंमें भरे हुये हैं । तीनों लोकों का निरूपण कर चुकनेपर तिर्यंचोंका प्रतिपादन करना सुगम है । अतः इस सूत्र द्वारा तिर्यंचोंके लक्षण और अर्थापत्या निवासस्थान त तीनों लोककी प्रतिपत्ति करा देना सूत्रकारको आवश्यक पड गया है। ---- अधोलोकं मध्यलोकमूर्ध्वलोकं चाभिधाय यदत्र प्रकरणाभावेपि तिर्यग्योनिजानां निरूपणं सूत्रकारेण कृतं तत्तेषां सर्वलोकाश्रयत्वप्रतिपत्त्यर्थं च । तिर्यप्रकरणेस्य सूत्रस्याभिधाने सर्यतिर्यग्भेदवचने सति सूत्रस्य गौरवप्रसंगात् । सर्वलोकाश्रयत्वं पुनरेषां परिशेषात् योज्यते।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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