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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
मध्यवर्ती इसलिये कहा है कि कृष्णलेश्या के कतिपय तीव्र अंशों में और कापोत के कतिपयजघन्य अंशों में आयु नहीं बंधती है। इसी प्रकार शुभलेश्याओं में पीत के कतिपय जघन्य अंशों में और शुक्ललेश्या के कुछ उत्कृष्ट अंशों में आयुष्य कर्मको बन्धवाने की योग्यता नहीं है। अतः अशुभ लेश्याओं के मध्य में पडे हुये चार अंश और तीनों शुभलेश्याओं के बीच में पडे हुये चार अंश यों आठ अंश मध्यम कहे जाते हैं । हां, शेष अठारह अंश तो परभवके लिये गति कराने के कारण हैं। अवश्य वे अठारह अंश पुण्य विशेष और पापविशेषोंकी वृद्धि के कारण होरहे हैं । यद्यपि जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टके अपेक्षा लेश्याके अठारह भेदों में सभी भेद गभित हैं। इनसे न्यारे कोई आठ भेद नहीं होसकते हैं। फिर भी संसारमें संसरण कराने वाले कर्मों में प्रधान होरहे आयष्य कर्म को बंधवाने की अपेक्षा अठारहों के मध्य में से ही कुछ पृथग्भत कर लिये गये आठ अंश मध्यवर्ती माने जाते हैं। शेष अंश तो गतिके उपयोगो पूण्य, पापों को वृद्धि कराते रहते हैं । योग और कषाय की मिश्रितपरिणति ही लेश्या है । जो कि पुण्य पापस्वरूप प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग इन चारों बन्धों की कारण हैं।
भवायुर्गतिभेदानां कारणं नामभेदवत् । शुक्ल त्कृष्टांशकादामा भवेत्सर्वार्थसिद्धिगः ॥२७॥ कृष्णोत्कृष्टांशकात्तु स्यादप्रतिष्ठानगाम्यसौ । शेषांशकवशान्नानागतिभागवगम्यताम् ॥ २८ ॥
लेश्याओं के अंश ये नामकर्म के प्रभेदोंके उदयसे युक्त होरहे विशेष भवकी आयु और गति भेदोंके कारण बन रहे हैं । आत्मा शुक्ललेश्याक उत्कृष्ट अंशसे मर कर सर्वार्थसिद्धि विमान को प्राप्त करने वाला होगा कृष्णके उत्कृष्ट अंशसे तो वह आत्मा सातवे नरकके इन्द्र क बिल अप्रतिष्ठान नरकमें जाने वाला हो जाता है । शुक्लकं मध्यम अंशको आदि लेकर कृष्ण के मध्यम अंशोंतककी परवशतासे यह जीव नाना गतियों को जाने वाला समझ लेना चाहिये।
यथागमं प्रपंचेन विद्यानंदमहोदया-। स्वामित्वेन तथा साध्या लेश्या साधनतोपि च ॥२९॥ संख्यातः क्षेत्रतश्चापि स्पर्शनात्कालतोंतरात् । भावाचाल्पबहुत्वाच पूर्वसूत्रोक्तनीतितः ॥ ३०॥
किस लेश्यासे मरकर किस गति को प्राप्त होता है। इस सिद्धान्त को विस्तार करके समझना होय तो सदागम अनुसार समझलेना चाहिये अथवा सिद्धान्त मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर रचे गये हमारे "विद्यानन्द महोदय" नामक ग्रन्थ से निश्चय कर लेना चाहिये । जिस