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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रकार निर्देश, वर्ण, आदि सात अधिकारों करके लेश्यायें साध थी गयी हैं, उसी प्रकार स्वामिपने करके और साधनसे भी छहों लेश्याओं का विवार कर लेना चाहिये । एवं संख्या से, क्षेत्र से, स्पर्शन से, कालसे, अन्तरसे भावसे और अल्पबहु बसे भी लेश्याओं की सिद्धि करलेनी चाहिये । अर्थात् उमास्वामी महाराजके अति संक्षिप्त सूत्रोंमें अनन्त प्रमेय भरा हुआ है। जो कि उपरिष्ठात् टीका या व्याख्यानों से समझ लिया जाता है । उसी पूर्व सूत्रोंमें कही जाचुकी नीतिके अनुसार इस सूत्र में भी अधिक प्रमेय तत्ववेत्ताओं करके समझ लेने योग्य है । अथवा सर्वज्ञधाराप्राप्त पूर्वऋषियोंके सूत्रोंमें कही जा चुको स्याद्वाद सिद्धान्त नीतिसे स्वामित्व आदिकों करके यथानाय लेश्याओं के अधिकार समझ लिये जाय । ग्रन्थकारने यहां परम सक्ष्म अतीन्द्रिय विषयों में आगमपरिपाटीका अनुसरण करने के लिये तत्ववेताओं को उद्युक्त किया है। राजवात्तिक गोम्मटसार ग्रन्थों में भी उक्त सोलह अधिकारोंका विशेष निरूपण किया है।
वैमानिक देवों में लेश्या का वर्णन कर अब भगवान् सूत्रकार कल्पोंका परिज्ञान कराने के लिये अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २३ ॥ सौधर्म से आदि लेकर नवग्रेवयकोंसे पहिले जो वैमानिक हैं, वे सब कल्प हैं, अर्थात् सौधर्म से लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त स्थान या उनमें रहने वाले देव कल्प कहे जाते हैं।
सौधर्मादिग्रहणमनुवर्तते, तेनायमर्थः-सौधर्मादयः प्राग्वेयकेभ्यः कल्पा इति । सौधर्मादिसूत्रानंतरमिदं सूत्रं वक्तव्यमिति चेन्न, स्थितिप्रभावादिसूत्रत्रयस्य व्यवधानप्रसंगात्। सति व्यवधानेऽनेन विधीयमानोर्थः कल्पेष्वेव स्यादनंतरत्वात् ।
__परली ओर की अभिविधि (अवधि) तो कह दी गयी। किन्तु उरली ओर की मर्यादा नहीं कहो, इसके लिये सौधर्म आदि का जो तीन सूत्र पहिले ग्रहण किया है, उसकी अनुवृत्ति करली जाती है । तिससे इस सूवका यह अर्थ लब्ध होजाता है कि सौधर्मको आदि लेकर और ग्रेवेयकोंसे पहिले विमान स्थान या वैमानिक देव कल्प हैं। यदि यहां कोई यों आक्षेप करे कि "सौधर्मेशान" इत्यादि सूत्र के अव्यवहित उत्तर काल में ही यह सूत्र श्री उमास्वामी महाराजको कहना चाहिये था । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि सौधर्मके अनन्तर ही कल्पोंका विधान किया जाता त' स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु" इस प्रकार के तीनों सूत्रों का 'प्राग्ग्रंवेयकेभ्यः कलाः" इस सूत्रसे व्यवधान होनेका प्रसंग होजाता। अर्थात् "प्राग्वेयकेभ्यः कल्पा,, इस सूत्रसे पीछे स्थिति प्रभाव आदि तीनों सूत्र पढे जाते, ऐसी दशामें व्यवधान होजाने पर इन तीन सूत्रों करके विधान किया जारहा अर्थ कल्पवासी देवोंमें ही प्राप्त होता। क्योंकि ये बारह कल्प ही