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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वैर नहीं छोडना, प्रचण्ड कोपी होना,दया धर्म रहितपना,अपरितोष,तीव्र दुष्टता,आदिक हें । तया नीललेश्याके लक्षण तो आलस्य, विषयलोलुपता, भीरुता, तृष्णा, ठगना, अतिलुब्धता, रूक्ष अभिमान, आदिक हैं । फिर तीसरी अशुभलेश्या कापोतीके स्फुट रूपसे मत्सरता, ईर्ष्या, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, युद्धमरण, अविचारिता, शोक, भयबहुलता आदि हैं । एवं चौथी पीत लेश्याके दृढमित्रता, विचारशीलता, दानदयारति, कार्यसम्पादनपटुता आदि बहिरंग चिन्ह हैं। तथा पद्मलेश्याले सत्यवादी पनको आदि लेकर क्षमा, सात्विकदान, ऋजुता, गुरुदेवता पूजाकरणतत्परता, भद्रता आदि शुभ लक्षण हैं। छठी शुक्ललेश्याके प्रशम, रागद्वेषरहितपन, निदान वर्जन, श्रेयोमार्गानुष्ठान, आदि लक्षण हैं। यों व्यावर्तक चिन्होंसे अन्तरंग लेश्यायें पहिचान ली जाती हैं। तथा सातवें गति अधिकार करके लेग्यायें समझ लेनी योग्य हैं । स्वकीय कारणों अनुसार बहुत भेदवाली प्राणियोंको गति होजानेसे लेश्यायें साध ली जाती हैं ।
प्रत्यंशकं समाख्याताः षड्विंशतिरिहांशकाः। तत्राटी मध्यमास्तावदायुषो बंधहेतवः ॥ २५ ॥ आपदेशतः सिद्धाः शेषास्तु गतिहेतवः । पुण्यपापविशेषाणामुपचाययका हि ते ॥ २६ ॥
प्रत्येक लेश्याके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट और मध्यवर्ती आठ अंशोंको मिलाकर यहाँ प्रकरणमें लेश्याओं के छवीस अंश बढ़िया वखाने गये हैं। उनमें कृष्ण और कापोतके मध्यवर्ती तथा पीत और शुक्लके मध्यमवर्ती आठ मध्यम अंश तो परभवकी आयुके बन्धके कारण हैं । यह सिद्धान्त ऋषप्रोक्त उपदेशोंसे प्रसिद्ध है। अर्थात् कर्मभूमिके मनुष्य या तिर्यचकी भुज्यमान आयुके तीन भागों में से दो भाग बीत चुकने पर अन्तर्मुहर्त तक पहिला अपकर्षकाल माना जाता है। यदि पहिले इस अपकर्ष कालमे उत्तर भवकी आयु न बंधे तो शेष आयुके त्रिभाग करते हुये दो भाग बीत जानेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक आयुष्य कर्मका बन्ध होता है। यदि यहांपर भी आयुष्य का बन्ध नहीं होय तो तीसरे, चौथे, पांचवें, छठवें, सातवें, और आठवें त्रिभाग स्वरूप अपकर्ष कालमें आयका बन्ध होजाता है। पूर्वके अपकर्षमें आयका बन्ध होजाने पर उत्तर अपकर्षों में तदविरुद्ध उसी आयुका बन्ध होगा, न्यारी आयुका नहीं । यदि आठोंमें किसी भी अपकर्ष में आयु न बंधे तो मृत्यु के अव्यवहित पूर्व अन्तर्मुहूर्त में परभव की आयुका बन्ध अवश्यक होजाता है । देव और नारकी जीवोंकी भुज्यमान आयुके छहमास शेष रहनेपर आठ अपकर्षकाल आयुके बन्धके योग्य रचे जाते हैं । भोगभूमियां मनुष्य या तियंचके स्वकीय आयुके नौ महीना शेष रहनेपर आयुके बन्ध योग्य आठ अपकर्ष काल प्राप्त होते हैं । अपकर्षकाल में जैसा लेश्याका अंश होता है वैसा आयुष्यका बन्ध होजाता है। आयुका बन्ध फल दिये बिना छूटता नहीं है । स्थिति कमती बढ़ती भले ही होजाय। लेश्याओं के कारण इन आठ अंशों को
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