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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्थानों करके यह प्राणी तिसी प्रकार छह स्थानों में पतित हानिओं द्वारा संक्रमणसे हीन होता जायगा, अन्य प्रकारों करके हीन नहीं होता है। हां, जिस समय कृष्णलेश्या की अनन्तगुणी हानि होते हुये संक्रमण होगा, तब नीललेश्याके उत्कृष्ट स्थान में प्राप्त होरहा उससे न्यारी अन्य श्यामें परस्थान संक्रमण होजाता है । अन्य प्रकारोंसे नहीं ।
एवं विशुद्धिवृद्धौ स्याच्छुक्ललेश्यस्य संक्रमः । शुक्लायामेव नान्यत्र लेश्या एवावसानतः ॥ १६ ॥ तथा विशुद्धिहान्यां स्यात्तलेश्यांत संक्रमः । अनन्तगुणहान्यैव नान्यहान्या कदाचन ॥ १७ ॥ मध्ये लेश्याचतुष्कस्य शुद्धिसंक्लेशयोर्नृणां । हानौ वृद्धौ च विज्ञेयस्तेषां स्वपरसंक्रमः ॥ १८ ॥
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इसी प्रकार विशुद्धिकी वृद्धि होने पर शुक्ललेश्यावाले जीवका संक्रमण शुक्ललेश्याम ही होगा, अन्यत्र नहीं होगा। क्योंकि शुक्लसे बढ़िया कोई दूसरी शुभलेश्या ही नहीं है । शुक्लंसे उत्तम लेश्याओं का विराम होजानेसे बढ़ रहे शुभ परिणामोंका पलटना उसी शुक्ललेश्या में ही हुआ करता है। हां, तिस प्रकार छह स्थानों में पडे हुये क्रमसे विशुद्धिकी हानि होने पर अन्य लेश्याओं में भी संक्रमण होजाते हैं । किन्तु विशुद्धिकी अनन्तगुणी हानि करके ही शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या में परिवर्तन होगा । अन्य संख्यातभाग हानि आदि पांच हानियों करके कभी नहीं परस्थान संक्रमण होसकता है । यों कृष्णलेश्या और शुक्ललेश्या के विषयमें स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमणका विचार कर दिया है । मध्य में विराज रहीं नील, कापोत, पीत, और
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इन चार लेश्याओं का स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण तो उन जीवोंके विशुद्धि और संक्लेश को हानि या वृद्धिके होने पर अनुलोम और प्रतिलोम दोनों ढंगों से समझ लेना चाहिये । भावार्थ-नील लेश्यामें संक्लेशकी वृद्धि होजाने पर जघन्य अंशसे मध्यम अंश होजानेकी दशा में स्त्रस्थान संक्रमण है | और उत्कृष्ट अंशसे कृष्णलेश्या में पहुंचने पर परस्थान संक्रमण है । यों ही संक्लेशकी हानि होनेपर नील लेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मध्यम अंश होजाने दशा में स्वस्थान संक्रम है । और नीललेश्या के जघन्य अंशसे संक्लेश हानि दशा में कापोतीकी दशा प्राप्त होने पर परस्थान संक्रमण हैं । यही दशा अन्य लेश्याओं में लगा लेना । छह वृद्धियों में संख्यात पद उत्कृष्ट संख्यात पकड़ना और असंख्यात पदसे असंख्याते लोकोंके प्रदेशों प्रमाण संख्या का ग्रहण करना तथा अनन्त पदसे जीवराशिका अनन्तगुणा और पुद्गल राशिका अनन्तवां भाग स्वरूप अनन्तसंख्या लेनी चाहिये । ये छहों वृद्धियां लेश्या परिणतियोंके अविभाग प्रतिच्छेदों में होती रहती हैं । अविभागप्रतिच्छेदोंकी कितनी ही संख्णयें ऐसी है, जिनको कि कोई लेश्या परिणति नहीं धार सकी है । "अविभागपडिच्छेओ जहण्ग उद्डी पएसाणं" ( गोम्मटसार) यह यह अविभाग प्रतिच्छेद का सिद्धान्त लक्षण है ||